पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२४९

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२२६ - हिन्दी साहित्यकी भूमिका करके, देशान्तर और द्वीपान्तरका परिभ्रमण करके निश्चित कर गये हैं। देश-कालवश उनका यदि व्यतिक्रम हो भी गया हो तो उन्हें अस्वीकार नहीं करना चाहिए। काव्यमीमांसाके देखनेसे इस बात कोई सन्देह नहीं रह जाता कि राजशेखर स्वयं प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षक थे और उनके मतसे प्राकृतिक निरीक्षणका अभाव कविका महान् दोष था। उन्होंने स्पष्ट ही कहा है कि जो कवि अनुसंधान नहीं करता, उसके गुण भी दोष हो जाते हैं और जो सावधान रहता है, उसके दोष भी गुण हो जाते हैं। (काव्यमीमांसा अ०१८) कान्यमें इसी निरीक्षणको प्रवृत्त करने के लिए उन्होंने काव्य-मीमांसा देश-कालविभागकी सुंदर अवतारणा की है। कविसमयबाला अध्याय उनके अनुसन्धानका ही फल है। कवियोंके कायमें जो कविसमय सुप्तकी तरह पड़ा हुआ था, उसे उन्होंने यथाबुद्धि जगा दिया। (काव्यमीमांसा अ० १६ पृ०८९) बादके आलंकारिकों मेंसे कितनोहीने आँख मूंद कर उनका अनुकरण किया है। इनमें अजितसेनका अलंकार-चिन्तामणि (पृ० ७-८), अमरकी काव्य-कल्पलतावृत्ति (द्वितीय प्रतान, पृ० ३०.३१) और देवेश्वरकी कवि-कल्पलता (पृ. ४०-४२) उल्लखयोग्य है। केशव मिश्रका अलङ्कारशेखर इस दिशामें यद्यपि राजशेखरके प्रदर्शित मार्गपर ही चलता है. पर उसमें अनेक अन्य विषयोंका भी समावेश है। राम तकंवागीशने साहित्यदर्पणकी टीका हूबहू अलंकारशेखरकी बातें ही उद्धृत कर दी हैं। साहित्यदर्पणके दोषप्रकरण में विश्वनाथने भी कवि-समय (आख्यात ) का उल्लेख किया है। (साहित्यदर्पण ७२३, २४, २५) इसकी और काव्यमीमांसाकी प्रायः सभी बातें मिलती हैं। पर कुछ विशेष बातें भी हैं। विश्वनाथने शायद सर्वप्रथम कविसमयके प्रसङ्गमें वृक्षदोहदका उल्लेख किया है। इसके बाद अलंकारशखरमें केशव मिश्रने भी अशोक और बकुलके दोहदोंको कविसमयके अन्तर्गत स्वीकार किया है। २ घृक्ष दोहद 'दोहद' शब्दका अर्थ गर्भवतीकी इच्छा है। कहा गया है कि यह शब्द 'दौईद' शब्दका, जिसका अर्थ इसीसे मिलता है, प्राकृत रूप है। कालक्रमसे यह प्राकृत शब्द ही संस्कृतभाषामें गृहीत हो गया। वृक्षके साथ 'दोहद' शब्द पुष्पोद्गमके अर्थमें प्रयुक्त होता है। शब्दार्णवके अनुसार कुशल व्यक्तियों द्वारा तरु-गुल्म-लता