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२२२ हिन्दी साहित्यकी भूमिका पार्श्वनाथचरितको अबलम्बन करके लिखे गये कान्योंकी भी संख्या कम नहीं है। वादिराज, असग, वादिचन्द्र, सकलकीर्ति, माणिक्यचन्द्र, भावदेव और उदयवीरगणि आदि अनेक दिगम्बर-श्वेताम्बर कवियों ने इस विषयपर खूब लेखनी चलाई है। जैनोंके साहित्यका एक महत्वपूर्ण अंग प्रबन्ध हैं, जिन्हें ऐतिहासिक 'विवृत्तियाँ कह सकते हैं। चन्द्रप्रभसूरका प्रभावकचरित, मेरुतुङ्गका प्रबन्धचिन्तामणि (१३०६ ई.), राजशेखरका प्रबन्ध कोष ( १३०८ ई.), जिचप्रभसूमिका तीर्थकल्प (१३२६-३१ ई.) आदि रचनाएँ नाना दृष्टियोंसे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इन प्रबन्धोंने इस बातको असिद्ध कर दिया है कि भारतीयों में ऐतिहासिक दृष्टिका अभाव था । इसी प्रकार जैन मुनियोंकी लिखी कहानियोंकी पुस्तकें भी काफी मनोरंजक हैं । पालिन्त (पादलिप्त ) सूरिकी तरङ्गवती कथा काफ़ी प्राचीन पुस्तक है। हरिभद्रका प्राकृत गद्यकाव्य समराइच-कहा एक 'धार्मिक कथाग्रन्थ है। इसी तरहकी ' कुवलयमाला' कथा भी है जिसके रचयिता दाक्षिण्यचिह्न उद्योतन सूरि हैं (आठवी शताब्दी)। इसीके अनुकरणपर मिद्धपिने संस्कृतमें उपमितिभव-प्रपञ्चाकथा लिखी थी (९०६ ई.)। ‘धनपालका अपभ्रंश काव्य 'भविसयत्त-कहा' काफी प्रसिद्ध है। ऐसी और भी अनेक कथाएँ लिखी गई हैं। यद्यपि वे धर्म-कथायें कही जाती हैं, पर अधिकांशमें काल्पनिक कहानियाँ हैं। चम्पू जातिके काम्य भी जैन साहित्यमें बहुत अधिक हैं। सोमदेवका यशस्तिलक (९५९ ई०) काफी प्रसिद्धि पा चुका है। हरिचन्द्रका जीवन्धरचम्पू , अहंदासका पुरुदेवचम्पू (१३ वीं सदी) आदि इसी जातिकी रचनाएँ हैं। धनपालकी तिलक-मजरी (९७० ई.), ओडयदेव (बादीभसिइ) की शद्यचिन्तामणि, कादम्बरीके ढङ्गके गद्य-काव्य है (११ वी सदी)। इनके अतिरिक्त कहानियोंकी और भी दर्जनों पुस्तके हैं जिनका मूल उद्देश्य जैनधर्मकी महिमा वर्णन करना है। कथाओंके कई संग्रह भी हैं जो कथाकोश कहलाते हैं। इनमें पुन्नाटसंघके आचार्य हरिषेणका कथाकोश सबसे पुराना है (ई०स० ९३२) । प्रभाचन्द्र, नेमिदत्त ब्रह्मचारी, रामचन्द्र मुमुक्षु आदिके कथाकोश अपेक्षाकृत नवीन हैं। ___ श्रीचन्द्रका एक कथाकोष अपभ्रंश भाषामें भी है। ऐसे ही जिनेश्वर, देवभद्र, राजशखेर, महंस आदिके कथा-ग्रन्थ हैं। यह साहित्य इतना विशाल है कि इस