पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२४२

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जैन साहिन्य बिन्दुसार । इन बारहों अंगोंकी रचना भगवान के साक्षात् शिष्य ग दार हुई बदलाई गई है। इनके अतिरिक्त जो साहित्य है वह अंगबह नाम अभिहित किया गया है। उसके चौदह भेद हैं, जिन्द प्रकीयाक कहते हैं : १ सामायिक, २ संस्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ विनय, ६ कृतिकर्म, ७ दशव मलिक, ८ उत्तराध्ययन, ९ कल्पन्यवहार, १० कल्याकल्प, ११ महाऋत्य, १२ पुण्डरीक, १३ महापुडर क, १४ निशीथ। इन प्रकीर्णकों के रचयिता आरतीय मुनि बतलाये गये हैं जो अंग-पूर्वोके एकदेशके शाता थे ! सिद्धान्तोत्तर साहित्य देवधिगणिक सिद्धान्त अन्य संकलनके पहलेसे ही जैन आचार्योंकि अन्य लिम्बनेका प्रमाया पाया जाता है । सिद्धान्त-अन्यों में कुछ अन्य ऐसे हैं जिन्हें निश्चित रूपसे किसी आचार्यकी कृति कहा जा सकता है। बाद में तो ऐसे अन्योकी भरमार हो गइ । साधारणतः ये ग्रंथ जैन प्राकृतमें लिखे जाते रहे, पर संस्कृत भाव ने भी सन् ईसवीके बाद प्रवेश पाया। कई जैन आचाोंने संस्कृत भाषापर भी अधिकार कर लिया, फिर भी प्राकृत और अपभ्रंशको ज्यागा नहीं गया। संस्कृतको भी लोक-सुलभ बनाने की चेष्टा की गई। यह पहले ही बताया गया है कि भद्रबाहु महावीर स्वामी के निर्वाणकी दूसरी शताब्दी में वर्तमान थे। कल्पसूत्र उन्हींका लिखा हुआ कहा जाता है। दिगम्बर टॉग एक और भद्रबाहुनी चर्चा करते हैं जो सन् ईसबीसे १२ वर्ष पहले हुए थे। यह कहना कठिन है कि कल्पसूत्र किस भद्रबाहुकी रचना है। कुन्दकुन्दने प्राकृतमें ही ग्रन्थ लिन हैं : इनके सिवाय उमास्वानी या उमास्वाति, कट्टर, सिद्धसेन दिवाकर, विमन्दसूरि, मालत, आदि आचार्य सन् ईसवीके कुछ आगे-पीछे उत्पन्न हुए, जिनमेंसे कई टोनों सम्प्रदायोंमें समान भावसे आहत हैं । पाँचवीं शताब्दीके बाद एक प्रसिद्ध दार्शनिक और वैयाकरण हए जिन्हें देवनन्दिपज्यपाद) कहते है। मादवीं-आठवीं शताब्दी दर्शनके इतिहासमें अपनी उज्ज्वल आमा छोड़ गई। प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट्टका जन्म इन्हीं शताब्दियों में हमा, जिन्होंने बौद्ध और जैन आचा (विशेषकर समन्तभद्र और अकलंक ) पर कट्ट आक्रमण किया तथा बदलेमें जैन आचार्यों (विशेष रूपसे प्रभाचन्द्र और विद्यानन्द द्वारा प्रत्याक्रमण पाया ! इन्हीं शताब्दियों में सुप्रसिद्ध आचार्य शकर