पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२४०

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जैन साहित्य परिक्षा ), ४ संथार ( संस्तार ), ५ संडुल-वेयालिय (तन्दुलबैचारिक), ६ चन्दाविहाय (चन्द्रवेधक), ७ देविन्दरथम (देवन्द्रस्तव), ८ गणिविज्जा (गणिविद्या), महापच्चक्खाण { महाप्रत्याख्यान), १० वीरत्या (वीरस्तव)। छः छेदसूत्र ये हैं : १ निसीह (निश्चीय), २ महानिसीह (महानिशीथ), ३ ववहार (व्यवहार , ४ आचारदसाभो ( आचारदशः) ५ रुप्प ( बृहत्कल), ६ पंचकप्प (पञ्चकल्प )। पंचकल्पके बदले कोई कोई जिनमद्र-रचित जीयकप्प या जीतकल्पको छठा सूत्र मानते हैं। चार मूल सुत्त (मूलसूत्र) ये है: १ उत्तराज्झाय (उत्तराध्यायाः) या उत्तराज्झयन ( उसरायवन),२ आवस्सय (आवश्यक), ३ दसव्यालिय (दशवकालिक), ४ पिण्डनिज्जुचि (पिण्डनियुक्ति)। तृतीय और चतुर्थ मूल- सूत्रोंके स्थानपर कभी कभी ओइनिज्जति (ओपनियुक्ति) और पत्नी मुन (पाक्षिक सूत्र)का नाम लिया जाता है। दो और ग्रंथ इस प्रकार हैं-१ नन्दीमुत्त (नन्दिसूत्र) और ३ अणुयो- गदार (अनुयोगद्वार)। इस प्रकार इन ४५ ग्रन्थोंको सिद्धान्त-ग्रन्थ माना जाता है, पर कहीं कहीं इन ग्रंयों के नामों में मतभेद भी पाया जाता है। मतभेदकाले अन्यों को भी सिद्धान्त- ग्रन्थ मान लिया जाय तो उनकी संख्या सब मिलाकर ५० के आसपास होती है। अंगों में साधारणतः जैन तत्त्ववाद, विरुद्धमतका खण्डन और जैन ऐतिहासिक कहानियाँ विवृत हैं। अनेकोंमें आचार व्रत आदिका वर्णन है । उपांगोंमेंसे कई (नम्बर ५, ६, ७) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उनमें ज्योतिष, भूगोल, खगोल आदिका वर्णन है। सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति (दोनों प्रायः ममान वर्णनवाले हैं ) संसारके ज्योतिषिक साहित्य में अपना अद्वितीय सिद्धान्त उपस्थित करती हैं। इनके अनुसार आकाशमें दिखनेवाले ज्योतिष्क पिण्ड दो दो है, अर्थात् दो सूर्य हैं, दो दो नक्षत्र । वेदांग ज्योतिषकी भाँति ये दोनों अन्य खीष्टपूर्व छठी शताब्दीके भारतीय ज्योतिष-विज्ञानके रेकर्ड हैं। सब मिलाकर जैन सिद्धान्त- अन्धों में बहत ज्ञातन्य और महत्वपूर्ण सामग्री बिखरी पड़ी है, पर बौद्धसाहित्यकी भाँति इस साहित्यने अब तक देश-विदशके पण्डितों का ध्यान आकृष्ट नहीं किया है। कारण कुछ तो इनकी प्रतिपादन-शैलीकी शुष्कता है, और कुछ उस वस्तुका अभाव जिसे आधुनिक पण्डित Human Interest कहत है।