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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


साहित्यके उस अंगपर अपना निश्चित पद-चिह्न छोड़ गया है जिसे 'सन्त साहित्य' नाम दिया गया है । इसका प्रमाण हमें आगे चल कर मिलेगा। इसी प्रकार शास्त्र-सापेक्ष भाव-धाराके भक्तोंके अवतार-वादका जो रूप है, उसपर महायान सम्प्रदायका विशेष प्रभाव है। यह बात नहीं है कि प्राचीन हिन्दू-चिन्ता के साथ उसका सम्बन्ध एकदम हो ही नहीं, पर सूरदास, तुल्सी, दास आदि मतोंमें उसका जो स्वरूप पाया जाता है वह उन प्राचीन चिन्ता- ओंसे कुछ ऐसी भिन्न जातिका है कि एक जमानेमें ग्रियर्सन, केनेडी आदि पांडितोंने उसमें ईसाईपनका आभास पाया था ! उनकी समझमें नहीं आ सका था कि ईसाई धर्मके सिवा उस प्रकारके भाव और कहींसे मिल सकते हैं। लेकिन आज शोधकी दुनिया बदल गई है। ईसाई धर्ममें जो भक्तिवाद है वही महायानियोंकी देन सिद्ध होनेको चला है, क्योंकि ऐसे बौद्धोका अस्तित्व एशियाकी पश्चिमी सीमामें सिद्ध हो चुका है, और कुछ पंडित तो इस प्रकारके प्रमाण पानेका दावा भी करने लगे हैं कि स्वयं ईसा मसीह भारतके उत्तरी प्रदेशों में आये थे और बौद्धधर्ममें दीक्षित भी हुए थे। लेकिन ये अवान्तर बाते हैं। मैं जो कहना चाहता था वह यह है कि बौद्ध धर्म क्रमशः लोक- धर्मका रूप ग्रहण कर रहा था और उसका निश्चित चिह्न हम हिन्दी साहित्यमें पाते हैं। इतने विशाल लोक-धर्मका थोड़ा पता भी यदि यह हिन्दी साहित्य दे सके तो उसकी बहुत बड़ी सार्थकता है।

इधर यदि हम संस्कृत साहित्यकी ओर दृष्टि फेरें तो देखेंगे कि सन् ईसवीके बादका संस्कृत साहित्य उत्तरोत्तर पण्डितोंकी चीज बनता गया । इस साहित्यमें लोक-जीवनसे हटे हुए एक कल्पित जीवन और कल्पित संसारका आभास मिलता है। महाभारत या रामायण जिस प्रकार लोक-जीवनसे प्रत्यक्ष भावसे जड़ित थे, उत्तरकालीन काव्य-ग्रंथ वैसे नहीं रहे। ज्ञान, जो किसी समय प्रत्यक्ष साधना और तन्मय जीवनसे उपलब्ध हुआ था, उत्तरकालीन टीकाकारों और ग्रंथकारों के लिए बहसकी चीज रह गया। असलमें जो लिखा गया उसमें बुद्धि और प्रतिभाका तो काफी विकास हुआ परन्तु यह निश्चित रूपसे विश्वास कर लिया गया कि यह ज्ञान प्राचीनोंके ज्ञानसे निम्न कोटिका है । इसी मनोवृत्तिका परिणाम कि प्रत्येक वैष्णव आचार्यको अपने मतवादकी पुष्टिके लिए प्रस्थानत्रयी अर्थात् बादरायणका ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और गीताका सहारा लेना पड़ा। यह एक व्यापक