पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२३९

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हिन्दी साहित्यको भूमिका सम्पूर्ण जैनागम छह भागोंमें विभक्त है-(१) बारह अंग, (२) बारह उवंग या उपांग, (३) दक्ष पदण्णा या प्रकीर्णक, (४) छह छेयसुत्त या छेदसूत्र, (५) दो सूत्र ग्रंथ (६) चार मूल सुत्त या मूल सूत्र । ये सभी ग्रंथ आर्ष या अर्ध-मागधी प्राकृतमें लिखे हुए हैं। कुछ आचार्योंकि मतसे बारहवाँ अंग दृष्टिवाद संस्कृतमें था। बाकी जैनसाहित्य महाराष्ट्री प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत में है। अंग और उपांग: पहला अंग आयारंगसुत्त वा आवारात सूत्र है जो दो विस्तृत श्रुत-स्कन्धों में जैन मुनियोंके कर्तन्याकर्तव्य-आचारका निर्देश करता है। विद्वानोंके मतसे इसका प्रथम श्रुतस्कन्ध दूसरेसे पुराना होना चाहिए। बौद्ध साहित्यमें जिस प्रकार गद्य-पद्यमय रचनाएँ पाई जाती हैं, ठीक वैसी ही इसमें भी हैं। जैन और बौद्ध शास्त्रों में जो अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है, वह यह है कि जहाँ चौद्ध-संबके नियमोंमें बहुत कुछ ढील दिखलाई पड़ती है, वहाँ जैन-संघके नियमों और अनुशासनोंमें बड़ी कड़ाई की व्यवस्था है। बारह अंग ये हैं :१ आयारंग सुत्त (आचारांग सूत्र ), २ सूर्यगडंग (सूत्रकृतांग), ३ ठाणांग (स्थानाङ्ग), ४ समवायंग (समवायांग ), ५भगवती वियाइपण्णति (भगवती न्याख्याप्रज्ञप्ति), ६ नाया धम्मकहाओ (ज्ञातृधर्मकथाः), ७ उवासगदसाओ ( उपासकदशाः), ८ अन्तगडदशाओ (अन्तकृद्दशाः),९ अणुत्तरोववाइयदसाओ ( अनुत्तरोपपातिकदशा.), १० पण्डवागरणाई ( प्रश्नन्याकरणानि, ११ विवागसुयं (विपाकश्रुतं ), १२ दिट्टिवाय (दृष्टिवाद)। बारह उपांग ये हैं:१ उववाइय ( औपपातिक ). २ रायपणहज (राजप्रश्नीय), ३ जीवाभिगम, ४ पन्नवणा (प्रज्ञापना), ५ सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्ति), ६ जम्बुद्दीवपत्ति (जम्बुद्वीप-प्रज्ञप्ति), ७ चन्द-पण्णत्ति (चन्द्रप्राप्ति), ८ निरयावली, (नरकावलिका), ९ कप्पाबडंसिपाओ (कल्पावतसिकाः), १० पुष्फचूलिआओ (पुष्पचूलिकाः)११ वण्हिदसाओ (वृष्णिदशाः)। दस पइण्णा (प्रकीर्णक)ये हैं: वीरभद्रलिखित चऊसरण (चतु:- झारण), २ आउरपच्चरखाण (आतुरप्रत्याख्यान),३ भत्तपरिण्णा ( भक्त-