पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२३८

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जैन साहित्य प्रथम शिव्य इन्द्रभूति ( गौतम ) गणधरने अंग-पूर्व अर्थोकी रचना की* फिर उन्हें अपने सथर्मा सुधर्मा ( लोहार्य) को और सुधमी स्वामीने जाम्चामीको दिया। जम्बूस्वामीसं अन्य मुनियों ने उनका अध्ययन किया । यह सन महावीर स्वामीके जीवन-कालमें हुआ। इसके शद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुत्तकैवल्ली हुए। इन्हें पूर्वोक्त अंग और पूर्वोका सम्पूर्ण ज्ञान था। महावीर-निर्वाणके ६२ वर्ष बाद तक जम्बूस्वामीका और उनके १०० वर्ष बाद तक भद्रबाहुका समय है। अर्थात् 'दगम्बर शास्त्रों के अनुसार महावीर- निर्वाणके १६२ वर्ष बाद तक अंग और पूर्वोका अस्तित्व रहा। - इसके बाद वे क्रमश: लुम होते गये और वीरनिर्वाण ६८३ तक एक तरइसे सर्वथा लुप्त हो गये। अन्तिम अंगधारी लोहार्य (द्वितीय)बतलाये गये हैं जिनको केवल एक आवारांगका ज्ञान था। इसके बाद अंग और पूर्वोक एकदेशके ज्ञाता और उस एकदेशके भी अशी के ज्ञाता आचार्य हुए जिनमें सौराष्टके गिरिनगरके श्वरसेनाचार्यका नाम उस्टमनीय है। उन्हें अमायणीपूर्वक पंचमवस्तुसत महाकर्ममाभृतका ज्ञान था। इन्होंने अपने अन्तिम कालमें आन्ध्रदेशसे मलबलि और पुष्पदन्ट नामक शिष्यों को बुलाकर पढ़ाया और तब इन शिष्योने विक्रमकी लगभग दूसरी शताब्दी पदाबण्डागम तथा कवायाभूत सिद्धान्तोंकी रचना की। ये सिद्धान्त-ग्रन्थ बड़ी विशाल टीका ओके सहित अब तक सिर्फ कर्णाटकके मूडबिद्री नामक स्थान सुरक्षित थे, अन्यत्र कहीं नहीं थे। कुछ ही समय हुआ इनमें से दो टीका-अन्य धवला और जय-धदला बाहर आये हैं और उनमेंसे एक वीरसेनाचार्यकृत धवला टीकाका प्रकाशन आरंभ हो गया है। इस टीकाके नि:पका समय शक संवत् ७३८ है। ऐसा मालूम होता है कि श्वेताम्बर-मान्य अंग-अन्य एक कालके लिये हुए नहीं हैं। संभवतः इनकी रचना महावीर-निर्वाणके अन्यरहित वादसे लेकर कुछ न कुछ देवद्धिगशिके काल तक होती रही होगी। इसका एक प्रमाण यह भी है कि आर्य सुधर्म, आर्य श्याम और भद्रबाहु आदि महावीरके परवर्ती अनेक आचार्य अंगों और उपांगोंके रचयिता माने जाते हैं।

  • तेनेन्द्रभूतिगणिना तदिव्यवचोऽवबुध्य तत्तेत।

ग्रन्थोङ्गापूर्वनाम्ना प्रतिरचितो युगपदपराहे ॥ ६६-श्रुतावतार +कषायप्राभूत सिद्धान्तकी जयपवलाका भी प्रकाशन आरंभ हो गया है इसके सिवाय षट्खंडागमका छठा खंद महासंध भी छपने लगा है।