पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२३७

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२१४ हिन्दी साहित्यकी भूमिका - नष्ट हो चुके थे। अर्थात् उन्हें सभी शिष्य प्रायः भूल गये थे; फिर भी जो कुछ याद था, उसका संग्रह कर लिया गया। इस सभामें भद्रबाहु उपस्थित नहीं थे। भद्रबाहुने लौटकर देखा कि उनके वापस आये हुए दलके साथ इस दलका बड़ा भेद है । जो लोग मगधमें रह गये थे वे वस्त्र पहनने लगे थे; परन्तु भद्रबाहु और उनके शिष्य कड़ाईके साथ महावीरके नियमोंका पालन करते रहे जान पड़ता है, यहींसे जैनोंके दो सम्प्रदाय हो गये । भद्रबाहु और उनके शिष्य दिगम्बर और स्थूलभद्र और उनके शिष्य श्वेताम्बर कहलाये। इसका परिणाम यह हुआ कि दिगम्बरोंने पाटलिपुत्रकी सभाद्वारा संग्रहीत अंगों और पूर्वोको अस्वीकार कर दिया और कह दिया कि असली अंग-पूर्व तो छप्त हो चुके हैं। कुछ समय और बीतनेपर जान पड़ता है कि श्वेताम्बरोंका पूर्वोक्त संकलन । भी अन्यवस्थित या अस्तव्यस्त हो गया और तब महावीर-निर्वाणकी छठी शताब्दीमें आर्य स्कन्दिलके आधिपत्यमें मथुरामें फिर एक सभा की गई, और फिर जो कुछ बच रहा था वह सुब्यवस्थित किया गया। इस उद्धारको 'माथुरी- वाचना' कहते हैं। इसके बाद महावीर-निर्वाणकी दसवीं शताब्दीके लगभग (सन् ई०की छठी शताब्दी) वल्लभी-नगरी (काठियावाड़) में एक और सभा की गई जिसके अध्यक्ष देवर्षिगणि क्षमाश्रमण हुए जो उन दिनों सम्प्रदायके गणधर या नेता थे। इस सभामें फिरसे ग्यारह अंगोंका संकलन हुआ। बारहवाँ अंग दृष्टिबाद तो इसके पहले ही लुस हो चुका था। इस समय जो ग्यारह अंग उपलब्ध हैं वे देवधिगणिके संकलन किये हुए माने जाते हैं। इस वर्णनसे इतना तो स्पष्ट है कि अंगोंका वर्तमान आकार छठी शताब्दीका है और इसलिए इनमें निश्चय ही महावीर स्वामी के बादकी बहुत-सी बातें घुल-मिल गई होंगीं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इनमें प्राचीन अंश है ही नहीं। असल में संग्रह और संकलन चाहे अब क्यों न किया जाय उसमें प्राचीन अंशोंका यथासंभव सुरक्षित रखा जाना ही अधिक संगत जान पड़ता है। और फिर वल्लभीकी सभाने पाटलिपुत्र और मथुरावाली सभाके संकलनका ही संस्कार या जीर्णोद्धार किया था, कुछ नया संकलन नहीं किया था। दिगम्बग्रेक मतसे भगवान महावीरकी दिग्यवाणीको अवधारण करके उनके