पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२३६

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जैन साहित्य जैनधर्मके प्रवर्तक या संस्कर्ता महावीर स्वामी (निगण्ठ नातपुत्त) बुद्धदेवके पूर्ववर्ती थे। परन्तु जैन साहित्य इस समय जिस रूपमें मिलता है, उसके महावीरकालीन होने में बहुतोंको सन्देह है। जैनोंके दो प्रधान सम्प्रदाय है: श्वेताम्बर और दिगम्बर। श्वेताम्बर अन्थों में मालूम होता है कि महावीर स्वामीने जो उपदेश दिया था उले उनके दो प्रधान शिष्य, इन्द्रभूति और सुधर्माने, जो गणधर कहलाते थे, व्यवस्थित रूपसे सङ्कलिल किया और वह समुच्चय-सङ्कलन द्वादशाङ्गी कहलाया, अर्थात्, उनकी समस्त वाणी वर्गीकरण करके बारह अङ्गों में विभक्त की गई। यद्यपि अभी तक जैन साहित्यके इतिहासकी अच्छी तरह छानबीन नहीं हो पाई है और इससे बौद्ध साहित्यके समान जैन साहित्यका ठीक ठीक प्रारम्भिक इतिहास नहीं बतलाया जा सकता, फिर भी श्वेताम्बर-दिगन्दर उम्प्रदायोंकी परम्परागत अनुश्रुतियोंके आधारसे वह इस प्रकार मालूम होता है। महावीरके निर्वाणकी दूसरी शताब्दी में मगध एक द्वादशवर्षन्यापी बड़ा भारी अकाल पड़ा। उस समय मौर्य चन्द्रगुप्त राज्य कर रहा था। अकालताहित होकर आचार्य भद्रवाह अपने बहुतसे शिष्योसहित कर्णाटक देशमें चले गये। जो लोग मगध रह गये उनके नेता स्थूलभद्र हुए। स्थूलभद्रको पूर्वोक्त द्वादशाङ्गीके लस हो जानेका डर हुआ, इसीलिए उन्होंने महावीर-निर्वाणके लगमा १६० वर्ष बाद पाटलिपुत्रमें श्रमण-संघकी एक सभा त्रुलाई। उन सबके सहयोगसे सम्प्रदायके मान्य तत्त्वोंका ग्यारह अङ्गों में सङ्कलन किया गया। यह संग्रह 'पाटलिपुत्र-वाचना' कहलाता है। बारहवें अङ्ग दिद्विवाथ (दृष्टिवाद )के १४ भागोंमेंते, जो कि पुश्व या पूर्व कहलाते थे, अन्तिम बार पूर्व