पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२३३

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका निर्णयमा बौद्ध ने माई अ एक अंश ही मूल संस्कृतमें उपलब्ध हो सका है। किसी किसीने इसे भी मैत्रेय- माथकी रचना ही कहा है; पर हुएनसांग तथा तिब्बती ऐतिहासिक इसे असंग- 'लिखित ही बताते हैं । इसके भी कई चीनी अनुवाद हुए हैं। पुराना अनुवाद छठी शताब्दीका है। असंगके भाई वसुबन्धुका प्रधान ग्रन्थ अभिधर्मकोश है जो मूल संस्कृतमें नहीं पाया जा सका है। इसके भी चीनी भाषामें कई अनुवाद हुए हैं। सातवीं शताब्दिमें यह ग्रन्थ इस देशमें इतना लोकप्रिय था कि सुप्रसिद्ध कवि बाणने लिखा है कि तोते भी आपसमें इसकी चर्चा किया करते थे। चीन और जापानमें यह भी बौद्ध धर्मका पाठ्य-ग्रन्थ है और विवादास्पद व्यवस्थाओंके निर्णयके लिए प्रमाण माना जाता है। इस आचार्यने अपने भाई असंगकी मृत्यु के पश्चात् अनेक महायान-सूत्रोंकी टीकाएँ लिखीं। तिब्बतमें इनके नामपर और भी अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। नागार्जुन और आर्यदेवके सम्प्रदायके दो और प्रसिद्ध टीकाकार हुए: बुद्धपालित और मान्यविवेक (भन्य)। ये दोनों क्रमश: प्रासंगिक और स्वतन्त्र सम्प्रदायोंके आचार्य है। माध्यमिक और विज्ञानवादी मतोंके समन्वयकी भी चेष्टा हुई थी। महायान- श्रद्धोत्पाद नामक ग्रन्थमें यही चेष्टा है। इसके कर्ता अश्वघोष माने जाते हैं। यह ग्रन्थ सातवीं शताब्दीमें चीनी भाषामें अनूदित हुआ था। हुएनुत्सांग जत्र भारतवर्ष में तीर्थ यात्राको आये थे, तो इस ग्रन्थका यहाँ प्रचार न देखकर उन्होंने फिरसे इसे संस्कृतमें उल्था करके प्रचारित किया था। दुर्भाग्यवश यह उल्था भी अब नहीं पाया जाता। चीनी अनुवाद, जिसपरसे हुएनत्सांगने पुनार संस्कृत किया था, सुरक्षित है और चीन, कोरिया और जापानमें चहुत लोकप्रिय है। पाँचवीं शताब्दीमें वसुबन्धुके सम्प्रदायमें तीन बड़े बड़े आचार्य हुए जिनके नाम हैं स्थिरमति, दिङ्नाग और धर्मपाल | इनमें दिङ्नाग बौद्ध-न्यायके प्रतिष्ठाता कहे जाते हैं। कहते हैं कि ये महाकवि कालिदासके प्रतिद्वन्द्वी थे इसी सम्प्रदायमें धर्मकीर्ति और चक्रकीर्ति भी नामी टीकाकार हो गये हैं। चन्द्रगोमिनका नाम बौद्ध वैयाकरण, दार्शनिक और कविके रूपमें विख्यात है। शान्तिदेव, जो गुजरातके राजपुत्र कहे जाते हैं, निःसन्देह बहुत उच्च कोटिके कवि ये। इनके तीन अन्य शिक्षासमुच्चय, सूत्रसमुच्चय और बोधिचर्यावतार बौद्धोंमें प्रसिद्ध हैं। अन्तिम पुस्तक प्रास हुई है और वह सचमुच ही विश्व साहित्यकी अमूल्य निधि है। कहते हैं कि भूसुकपाद नामक सिद्धसे ये अभिन्न हैं। आठवीं