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बौद्ध-संस्कृत साहित्य १४७ और १८६ ई० के बीचका है। छोटी पुस्तक भी तीन बार अनूदित हुई थी। सबसे पुराना अनुवाद कुमारजीवका है जो सन् ४२०ई० में हुआ था। चीनी अनुवादोंसे एक और तरहके ग्रन्थोंका भी पता चलता है। वे हैं अमितायुयान- सूत्र। इस श्रेणीका एक और ग्रन्थ अोभ्य-व्यूह पाया गया है जिसमें अक्षोभ्य नामक बोधिसत्वका माहात्म्य वर्णित है। इसके भी दो चीनी अनुवाद पाये जाते हैं। पुराना चौथी शताब्दीका है। इनके अतिरिक्त दार्शनिक महाकानसूत्र भी हैं। सबसे महत्वपूर्ण हैं प्रज्ञापारमिताएँ। इनका प्रतिपाद्य विष है बोधिसत्रकी ६ प्रकारकी पारमिता या पूर्णता और विशेष भावसे प्रज्ञा अर्थात् ज्ञानकी पूर्णता । यह पूर्णता शून्यताक शानसे होती है। नेपालमें दो प्रकारकी परस्परागत प्रसिद्धियाँ प्रचलित है। एकके अनुसार पहले सवा लाख श्लोकोंकी प्रज्ञापारमिता थी जो बादमें क्रमशः एक लाख, पचीस हज़ार, दस हज़ार और अन्त में आठ हजार श्लोकों में संक्षिप्त हुई। दूसरी प्रसिद्धिके अनुसार आठ हजारवाली शापारमिता ही पहली है, बाकी उसीपरसे क्रमशः बढ़ाई गई हैं ! भारतवर्ष में बहुत अधिक प्रज्ञापारमिताएँ लिखी गई थीं । तिब्बत और चीनमें तो ये और भी बढ़ती ही गई। चीनी और तिब्बतीमें लम्बी लम्बी पारमिताओंके अनुवाद हैं। कई तो लाख लाख श्लोकोंकी हैं। खूब सम्भव हैं कि अष्टसाहसिका या आठ सहस्र श्लोकोंवाली प्रज्ञापारमिता ही प्राचीन हो । इन पारमिताओंमें समस्त जागतिक व्यापारोंको माया और अस्तित्वहीन बताया गया है। यहाँ तक कि बुद्धदेव और बोधिसत्व भी नहीं है। समस्त पारमिताओं में इतनी पुनरुक्ति और एकष्टता है कि पढ़ते पढ़ते तबीयत ऊब जाली है। शायद इन लम्बी रचनाओं का कारण यह हो कि इनका पाठ करना और पाठका दीर्घ काल तक चलाना संन्यासियोंका आवश्यक कर्तव्य था और कामकाजहीन संन्यासियोंको इन्हें बढ़ाते जाने में ही लाभ रहा हो। कभी कभी गैरबौद्ध विद्वानों को इसमें व्यर्थकी ऊल-जलूल ( Nonsense) बातें ही नज़र आई हैं। पर इस बातको अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इनके आधारभूत सिद्धान्तों में गहराई रही होगी। कई महायान आचार्यों ने, जो निश्चय ही बड़े भारी भारी दार्शनिक थे-जैसे नागार्जुन, असंग, वसुबन्ध आदि-इन पारमिताओंपर टीकाएँ लिखी है। दुर्भाग्यवश ये टीकाएँ मूल रूप उपलब्ध नहीं हुई है, केवल चीनी और तिब्बती अनुवादोंछे इनके विषय में हम जान सकते हैं।