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भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
 


(५) कर्मकाण्डकी बहुलता और मंत्र-तंत्रमें विश्वास ।

(६) संस्कृतके ग्रंथोंमें विश्वास, पालीमें नहीं।

(७) बुद्ध में और विशेष करके अमिताभ बुद्ध में विश्वास और उनके नाम-जपसे निर्वाण-प्राप्तिमें विश्वास ।

कहना व्यर्थ है कि ये सभी बातें उत्तर भारतके हिन्दू धर्ममें रह गई हैं। आगे चलकर हम यह भी देख सकेंगे कि हिन्दी साहित्यके प्रायः सभी अंग इनमेंके एकाधिक सिद्धान्तोंसे प्रभावित थे। इन तथा अन्य महायानीय सिद्धान्तोंकी यदि हीनयानीय सिद्धान्तोंसे तुलना की जाय तो इस विषय में कोई संदेह नहीं रह जायगा कि महायान हीनयानकी अपेक्षा अधिक मानवीय, लोकगम्य, सहज और समन्वयमूलक है । वह प्राचीन बौद्ध धर्मकी भाँति केवल यही नही कहता कि सब कुछ छोड़कर चले आओ, बल्कि यह सलाह देता है कि सब कुछ लिये हुए भी तुम परमपद तक पहुँच सकते हो।

अब प्रश्न यह है कि ये बातें महायान सम्प्रदायने हिन्दू समाजमें प्रवेश कराई या हिन्दू समाजने महायानमें ? दोनों बातें संभव हैं और असलमें जीवित समाजोंके भावोंके आदान-प्रदान इस प्रकारसे होते हैं कि उनके बीच लकीर खींच कर बता सकना कि यह अमुककी देन है और यह अमुककी लेन है, सदा कठिन हुआ करता है। फिर भी पंडितोंने कुछ बातोंको निश्चित रूपसे महायानियोंकी देन माना है । देन नहीं बल्कि भग्नावशेष कहना ठीक होगा। सन् ईसवीकी पहली शताब्दीमें महायान प्राचीन बौद्ध धर्मसे अलग हो गया। उसी समयसे वह सुदूर पूर्व और मध्य एशियासे अपना सम्बन्ध बढ़ाता गया। इन स्थानोंमें वह अपने विशुद्ध रूपोंमें न रह सका । वहाँसे उसने बहुत-सी नई बातें सीखीं और उनको वह कभी कभी इस देशमें परिचित करानेमें भी समर्थ हुआ। जो बातें उसने उस युगके समाजके निचले स्तरसे सीखीं उनमें भी नई बातें प्रविष्ट कराई । कहते हैं, तंत्रमें चीनाचार आदि आचार स्पष्ट ही विदेशी हैं। हालही में एक पंडितने तांत्रिकोंके 'आगम' शब्दकी जाँच करके यह निष्कर्ष निकाला है कि ये बाहरसे आये हुए आचार हैं जो नामसे ही प्रकट हैं। नाम-जपका पुराना सबूत भारतवर्षके प्राचीन शास्त्रों में न मिलता हो सो बात तो नहीं, पर मध्य युगके समाजमें इसका जो रूप रहा वह निश्चयपूर्वक महायान सम्प्रदायसे ही अधिक सम्बद्ध था। इन बातोंके अतिरिक्त बौद्ध तत्त्ववाद, जो निश्चय ही बौद्ध आचार्योंकी चिन्ताकी देन था, मध्ययुगके हिन्दी