पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२२९

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका साथ की जा सकती है। उनका जन्म और मृत्यु केवल दिखाचा-भर है, असल में वे इन दोनोंसे अतीत हैं। एक बात जो उल्लेख-योग्य है वह यह है कि सद्धर्मपुण्डरीकके बुद्धदेव पालीके बुद्धकी भाँति एक स्थानसे दूसरे स्थानपर घूम घूमकर धर्म-प्रचार नहीं करते, बल्कि सइलों बोधिसत्रों और देवताओंसे घिरे हुए गूधकुट पर्वतपर बैठे रहते हैं और जब धर्मकी वर्षा करना चाहते हैं, जब धर्मका नगाड़ा बजाना चाहते हैं, 'जब धर्मकी विशाल ज्योति उद्भासित करना चाहते है, तब उनके भुओंके एक केशसे ज्योतिरेखा निकलती है, जो अट्ठारह हजार बुद्धलोकोंको प्रकाशित करती है और बोधिसत्त्व मैत्रेयको आश्चर्यजनक ज्योति दिखाती हुई अन्त में बुद्धदेवके पास ही लौट आती है। इसी तरह पुण्डरीक-लिखित बद्ध-सिद्धान्त भी पाली ग्रन्थोंसे भिन्न हैं। जो कोई भी बुद्धका उपदेश सुनता है. कोई पुण्य कार्य करता है, कोई स्तूप बनवा देता है, वही बुद्धत्व प्राप्त कर लेता है। यहाँ मुक्ति बहुत सहज है। यहाँका बौद्धधर्म उत्तरकालीन पौराणिक हिन्द धर्मकी याद दिला देता है। पुण्डरीकका चीनी भाषामें पहला अनुवाद सन् २२३ में हुआ था। बादमें और भी कई अनुवाद हुए। सौभाग्यवश मूल ग्रन्थके कुछ छिन्न अंश तुर्किस्तानमें भी पाये गये हैं। यह प्राप्त अंश हू-ब-हू नेपाली ग्रन्थसे नहीं मिलता, इसलिए यह अनुमान किया गया है कि इस ग्रन्थके अन्ततः दो रूप निश्चय ही रहे होंगे। बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वरका गुण-गान करनेवाला एक और महायानसूत्र पाया जाता है, जिसका पूरा नाम अवलोकितेश्वर-गुण-कारण्ड-व्यूह है; पर संक्षपर्मे इसे कारण्ड-ब्यूह कहा करते हैं। इसकी रचना और शैली सब ब्राह्मण-पुरागोंके दंगकी है। पण्डितोंके मतसे इसका पद्यांश दोआबईसवीकी चौथी शताब्दीमें ही लिखा गया होगा; पर गद्यांश वादका च र्चालोकितेश्वरकी कल्पना बहुत उच्च कोटिकी है। जब तक समस्त ! मोचन न हो जाय, तब तक अवलोकितेश्वर बुद्धत्व भी नहीं प्राप्त करना चाहते । जिस प्रकार कारण्डम्यूहमें अवलोकितेश्वरकी महिमा गाई जाती है, उसी प्रकार सुखावती-म्यूहमें अमिताभ बोधिसत्वकी । सुखावती-न्यूहके नामसे दो पुस्तके संस्कृतमें पाई जाती हैं, एक छोटी और दूसरी बड़ी । इनमेंका प्रधान प्रतिपाद्य यह है कि जो कोई अमिताभका गुण-कीर्तन करता है, वह बुद्धलोकको प्राप्त होता है। बड़ी पुस्तकके बारह अनुवाद चीनी भाषामें हो चुके हैं। सबसे पुराना अनुवाद सन्