पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२२२

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चौद्ध-साहित्य महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । जालमत्थव टिपलब्ध नहीं हो सके हैं, लेखक भी बुद्धघोष ही माने जाते साकिस्तानसे इनके अन्थोंके छोटे-बड़े हैं। कहते हैं कि बुद्धघोष चौड़ा किया है। फिर महावस्तु, दिव्यावदान और बौद्ध होकर सिंहल सोयाग देखिए) में भी. इनका उल्लेख पाया जाता है। ठीका लिखी हैं। विसुद्धिमग्गो (विशुद्धि-मागनी इन्सिंगने चीनी भाषामें जाते हैं। असलमें यह भी एक श्लोकको आश्रय समानता बहुत है। पर अन्तर ) ये बहुत श्रेष्ठ कोटिके भाष्यकार माने जाते हैं। झ गया है कि शायद दोनों ही ' हैं-विसुद्धिमग्गो, समन्तपासादिका (विनय- गये हैं और बादमें उनमें (दीपक), पपञ्चसूदनी (मझिम०), सारस्थपका . पूरनी (अनु.), कंखावितरणी (पाति०) इत्यादि है। इसका भग्नावशेष धम्मपाल नामक टीकाकार हुए जिन्होंने त्रिपिटकके उन हिन्दू हैं, पर नेतजन्हें बुद्धघोष छोड़ गये थे, परमत्थदीपिनी नामकी टोका लिरज य ग्रन्थ है-इतिवृत्तक, उदान, चरिया-पिटक, थेरगाथा, विमानवाथु और पेतवत्थु । कहते हैं कि ये दक्षिण भारतके रहनेवाले बाह्मण थे और अनुमानतः सिंहलके अनुराधपुरमें पहे थे। इन अर्थकथाओंके आधारपर दो ऐतिहासिक काव्य दीपवंश और महावंश भी लिखे गये। दोनों ही काव्य पाँची शताब्दीकी कृति माने जाते हैं। दीपवंशकी अपेक्षा महावंशका काव्यत्व अधिक प्रशंसित हुआ है। अर्थकथाएँ और ये दोनों कान्य बादमें एक बहुत बड़ी काच्य-परम्पराको उत्तेजित कर सके। इस परम्पराके मुख्य ग्रन्थ बोधिवंश दाठावंश और चूपवंश हैं । ये भी पहले सिंहली भाषामें लिखे गये थे और बाद में पाली में भाषान्तरित हुर ! इस तरह बुद्धघोष के बादसे ई० सन्की वारहवीं शताब्दी तक लंकामें बहुत से पाली-ग्रन्थ लिखित हुए । बुद्धदत्त नामक एक भिक्षने जो बुद्धघोषके समसामयिक माने जाते हैं (पर इसमें पण्डितोंने सन्देह किया है), अभिधम्मावतार, रूपारूरविभाग और विनय-विनिश्चय नामक ग्रन्थ लिखे थे। इसके बाद भी पाली में अन्थ लिखे जाते रहे और आज भी लिखे जाते हैं, जिनमें कितने ही काफी महत्वपूर्ण हैं । ब्रह्मदेशमें तो ग्यारहवीं शताब्दीके पहले पाली भाषा पहुँची ही नहीं थी। बादकी शताब्दियोंम वहाँ भी कई अच्छी पुस्तकें लिखी गई; पर प्रायः सबके आधार जातक अन्य ही थे, पालीमें ज्योतिष, व्याकरण आदि विषयोंपर भी लिखनेका प्रयत्न किया गया; पर बहुत कम