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१९८ हिन्दी साहित्यकी भूमिका पिटकके अन्तिम दो ग्रन्थोंसे भी यह अधिक प्राचीन है, और इसके कत्ती बुद्धदेवके शिष्य महाकच्चायन हैं जो पेटकोपदेसके भी रचयिता माने जाते हैं। लेकिन ऐसा विश्वास किया जाता है कि अनुपिटक ग्रन्थों का अधिकांश लंकामें ही रचिल हुआ था । लंकाके भिक्षुओंके निकट हम बुद्ध-वचनोंके अपेक्षाकृत विश्वसनीय संकलनोंको सुरक्षित रखनेके लिए ही ऋणी नहीं हैं, बल्कि इन भिक्षुओंके उन समस्त प्रयत्नोंके लिए भी, जो उन्होंने उक्त साहित्यको बोधगम्य और समृद्ध बनानेके लिए किया है, हम सदा ऋणी रहेंगे। इन प्रयत्नोंमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है बुधोत्रकी अट्ठकथाएँ (या भाष्य) सिंहली परम्पराके अनुसार अर्थकथाएँ (पा०-अट्ठकथा भाष्य) भी प्रथम संगीति-कालसे ही चली आ रही हैं, जिन्हें महिन्दने वडगामणीके तत्वावधान में सिंहली भाषामें अनूदित किया था। इसी अनुवादको बुद्धघोषने पाँचवीं शताब्दीमै पाली में भाषान्तरित किया। पंडितोंका विचार है कि असल में यह परम्परा भारतीय प्रकृतिकी देन है, को किसी वस्तुको तब तक प्रामाण्य नहीं मानती, जब तक कि प्राचीन परम्पराक साथ उसका योगन सारित हो जाय, और बुद्धघोष वास्तवमें इन अर्थकथाओंके का हैं। पर इस विषयमें कोई सन्देह नहीं करता कि बुद्धघोषको निश्चय ही सिंहली रूपमै कुछ भारतीय भिक्षुओंकी ब्याख्याएँ मिली थीं जो उनके भाष्यका मेरुदण्ड है। इन्हीं प्राचीनोंको बुद्धघोषने 'पौराणा' (प्राचीन लोग) कहकर उद्धत किया है। सिंहली अनुवादमें मूल पाली पच ज्योंके त्यों रखे गये थे। भारतवर्षमें व्यों ज्यों स्थविरवाद अन्यान्य सम्प्रदायों द्वारा अभिभूत होता गया, त्यो त्यो लंकामें उसका केन्द्र दृढ़ होता गया।* लंकामें जो नई चीजें लिखी गई, उनमें सबसे पहले निदान-कथाका नाम लिया जाना चाहिए। यह बुद्धदेवका जीवन-चरित है और जातककी टीका 'जातकस्थवण्णना' के आरम्भमें है। इसमें बुद्धदेवका जो जीवनवृत्त दिया हुआ है वह महायान सम्प्रदायक संस्कृत-ग्रन्थोंसे मिलता है, अतः यह माना जाता है कि इसका भी आधार निश्चय ही कोई भारतीय कहानी रही होगी, जो उस समय लंकामें पहुँची होगी, जब महायान सम्प्रदाय संगठित हो रहा होगा, या फिर दोनों जीवनवृत्तोंका कोई एक ही सामान्य आधार होगा । इसीलिए यह पुस्तक बहुत

  • अनिरुद्धाचार्यका अभिधम्मथसंग्रह नामक ग्रन्थ भी (विभावनी-टीकासमेत) सिंहली परम्पराकी बहुमूल्य देन है।