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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


कुच्छ्रसाध्यताका अर्थात् कष्ट-पूर्ण व्रत संयम आदिका कोई अंग रहा ही नहीं। इस प्रकार महायान संप्रदाय या यों कहिए कि भारतीय बौद्ध संप्रदाय, सन् ईसवी के आरम्भ ही लोकमतकी प्रधानता स्वीकार करता गया। यहाँ तक कि अन्तमें जाकर लोकमतमें घुल मिल कर लुप्त हो गया । सन् ईसवीके हजार वर्ष बाद तक यह अवस्था सभी सम्प्रदायों, शास्त्रों और मतोंकी हुई । मुसल- मानी संसर्गसे उसका कोई सम्पर्क नहीं है । हजार वर्ष पहलेसे वे ज्ञानियों और पंडितोंके ऊँचे आसनसे नीचे उतर कर अपनी असली प्रतिष्ठा-भूमि लोकमतको और आने लगे। उसीकी स्वाभाविक परिणति इस रूपमें हुई । उसी स्वाभा- विक परिणतिका मूर्त प्रतीक हिन्दी साहित्य है । मैं इसी रास्ते सोचनेका प्रस्ताव करता | मतों, आचार्यों, सम्प्रदायों और दार्शनिक चिन्ताओंके मान-दण्डसे लोक-चिन्ताको नहीं मापना चाहता बल्कि लोक-चिन्ताकी अपेक्षामें उन्हें देख- नेकी सिफारिश कर रहा हूँ।

थोड़ी देरतक महायान संप्रदायकी चर्चा और कर ली जाय क्योंकि हमारे आलोच्य साहित्यपर इसका गहरा प्रभाव है । फिर लगे हाथों संक्षेप में स्मार्त आचार्योंकी चिन्ता-धाराकी परिणतिपर विचार कर लिया जाय । यह दूसरी बात भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि महायान संप्रदायका हमारे आलोच्य साहित्यपर जितना कुछ भी प्रभाव क्यों न हो, वह सामाजिक आचार-विचारोंका मेरुदण्ड नहीं है । मेरुदण्ड तो ये स्मार्त विचार ही हैं। फिर एक एक करके शैव वैष्णव आदि संप्रदायोंकी बात करना भी आवश्यक हो जायगा।

महायान संप्रदायकी निम्नलिखित सात विशेषताओंकी चर्चा पंडितोंने की है।

(१) सर्वभूत-हितवादमें विश्वास रखना और समस्त जगतके प्राणियोंके कल्याणार्थ प्रयत्न करना; स्वयं कष्ट सहकर भी, नरक भोग कर भी अन्य जीवोंके उद्धारार्थ प्रयत्न करना ।

(२) बोधिसत्वोंमें विश्वास रखना और यह भी विश्वास करना कि मनुष्य अपने सत्कमा और भक्तिके द्वारा बोधिसत्त्वत्व प्राप्त कर सकता है। "हरिको भजै सो हरिको होई।"

(३) बुद्धोंके लोकोत्तरत्वमें विश्वास | यह भी विश्वास करना कि बुद्धगण काल और देशकी सीमा परिव्याप्त हैं।

(५) जगत्को तार-शून्य और नश्वर मानना ।