पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/२१३

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१९० · हिन्दी साहित्यकी भूमिका बहुत-से अन्य सम्प्रदायके लोग भी बौद्ध-संघमें आ घुसे और अपना अपना राग अलापने लगे । तंग आकर सम्राट्ने तिस्स मोग्गलिपुतको बुलवाया जिन्होंने सम्राट्को वास्तविक रहस्थ समझाया । तब राजाने एक एक बौद्ध भिक्षुको बुला- कर उसके मतके विषयमें पूछा । कहा गया है कि जो लोग विभाज्यवादी (बिभजवादी) थे उन्हींको तिस्सने असली बौद्ध माना और बाकीको श्वेत वस्त्र पहनवाकर निकाल शहर किया। इन्हीं तिस्स (तिष्य) ने चुने हुए एक हजार भिक्षुओंकी सभा बुलाई जो नौ महीनेकी निरंतर आलोचनाके बाद तीन पिटकों या पिटारोंका संग्रह करनेमें समर्थ हुई। ये तीन पिटक ये हैं; विनय- पिटक, सुत्त-पिटक और अभिधम्म-पिटक । संक्षेपमें इन्हें त्रिपिटक कहते हैं। अन्तिम पिटकका एक एक अंग कथावत्थु तिष्यका रचित बताया जाता है। लक्ष्य करनेकी बात यह है कि स्थविरवादियों के सम्प्रदायको छोड़कर और किसी सम्प्र- दायके ग्रन्थोंमें इस संगीतिका उल्लेख नहीं मिलता। अशोककी प्रशस्तियों में भी इसकी चर्चा नहीं है यद्यपि सारनाथ, साँची और कौशाम्बीकी स्तम्भ-लिपियोंमें अशोकने अनाचारपरायण भिक्षुओंको श्वेत वस्त्र पहनवाकर निकाल देनेका जो आदेश दिया है, उसके साथ इसका सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार इसवी पूर्व तीसरी शताब्दीमें इन ग्रन्थोंका संगृहीत होना सिद्ध होता है। पंडितोंने तीन पिटकों से ही यह बात सिद्ध करने की कोशिश की है कि अशोक- के बहुत बाद तक भी इनमें बहुत-सी बातें जोड़ी, बदली और सुधारी जाती रहीं। फिर भी इतना मान लेनेमें किसीको भी कोई आपत्ति नहीं कि ईसा मसीहके जन्मके दो सौ वर्ष पहले इन पिटकोंके मुख्य भाग निश्चय ही संगृहीत हो गये थे, यद्यपि इनके वर्तमान रूपोंमें जो भाषा पाई जाती है, वह बुद्ध या अशोकके युगकी भाषा नहीं हो सकती। पिटकोंसे ही पता चलता है कि अशोकके पहले ही बुद्ध-वचनोंका भाषान्तर करना शुरू कर दिया गया था । किसी किसीने तो संस्कृतमें भी अनुवाद किया था जिसका स्वयं बुद्धदेवने निषेध या था। इस प्रकार पिटकोंमें जो भाषा सुरक्षित है, उसकी विशुद्धता सन्देहसे परे त है। ऊपर जो विवरण दिया गया है वह पाली-साहित्यका है। इसीको एकमात्र बौद्ध-साहित्य मान लेना ठीक नहीं। जैसा कि ऊपर बताये हुए अशोक-संगीतिक विवरणसे स्पष्ट है, वह केवल एक सम्प्रदायका संग्रह है। यह भी नहीं कहा जा