सूरदास और जायसीकी रचनाओंसे जान पड़ता है कि यह संप्रदाय उन दिनों
बड़ा प्रभावशाली रहा होगा। सन् १३२४ में तिरहुतका एक राजा मुसलमानोंते
खदेड़ा जाकर नेपालमें जा पहुँचा। वह अपने साथ अनेक पंडितों और ग्रंथोंको
भी लेता गया । इसका राज्य वहाँ बहुत दिनों तक स्थिर तो नहीं रह सका पर
इसके द्वारा ब्राह्मण धर्मका जो बीजारोप हुआ वह आगे चलकर बहुत विकास-
शील सिद्ध हुआ। परवर्ती राजा जयस्थितिने इन्हीं ब्राह्मणोंकी सहायतासे
समाजका पुनः संगठन किया । इस प्रकार नेपालके राजघरानेके प्रयत्नसे गुरखा
लोग, जो वहाँके प्रधान बाशिंदे थे, अपने प्राचीन धर्मो फिरसे ग्रहण करने में
समर्थ हुए पर नेवारी लोग बौद्ध ही बने रहे। इस नेपाली बौद्ध धर्मका एक
प्रधान रूप है 'आदि बुद्ध' की पूजा । आदि बुद्ध बहुत कुछ हिन्दुओंके
भगवानके समान ही है। यह लक्ष्य करनेकी बात है कि नेपालके ब्राह्मण बौद्ध
धर्मको शत्रु-दृष्टि से नहीं देखते । नेपालमाहात्म्यके अनुसार जो बुद्धकी पूजा
करता है वह शिवकी ही पूजा करता है। इसी प्रकार नेपाली बौद्धोंका
स्वयंभु-पुराण पशुपतिनाथकी पूजाको बुद्धकी ही पूजा मानता है । बहुत संभव
है कि काशी और मगधके प्रान्तोंमें भी अन्तिम दिनों में बौद्ध और पौराणिक
धर्मोंका पारस्परिक संबंध ऐसा ही रहा हो।
अब, इन सारी बातोंको ध्यानसे देखें तो मालूम होगा कि विराट् बौद्ध-
संप्रदाय पहले दो खण्डोंमें बँट गया हीन-यान और महायान । हीन-यान
संप्रदायवाले अपनेको शुरूमें ही हीन-यान (= छोटे रथ) के आरोही नहीं
कहते थे; अहीरन भी जब अपने दहीको खट्टा नहीं कहती तो ये बेचारे
अपने ही रथको भला हीन-रथ कैसे कह सकते थे ! पर महायानवालोंने इस
शब्दका ऐसा प्रचार किया कि हीन-यानवालों
को भी अन्तमें उसे मान लेना
पड़ा* । महायान अर्थात् बड़ी गाड़ीके आरोहियों का दावा है कि वे नीचे-ऊँचे,
छोटे-बड़े सबको अपनी विशाल गाड़ी में बैठाकर निर्वाण तक पहुँचा सकते हैं,
जहाँ हीनयान (या संकरी गाड़ी) वाले केवल संन्यासियों और विरक्तोंको ही
आश्रय दे सकते हैं। महा-यानके इस नाममें ही जनसाधारणके साथ उनके
गंभीर योगका आभास मिलता है। आगे चलकर फिर महा-यानमें भी कई
टुकड़े हो गये। सबसे अन्तिम टुकड़े हैं वज्रयान और सहजयान, जो अपनी
गाड़ीको सचमुच इतनी मजबूत और सहज बना सके कि उनमें पाण्डित्य और
★ परिशिष्टमे बौद्ध साहित्यका परिचय पढ़िए ।