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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


फैलाते रहे । नेपालमें तो अब भी बौद्ध धर्म किसी न किसी रूपमें प्राप्त हो जाता है पर अत्यन्त हालमें बंगाल, उड़ीसा और मयूरभंजकी रियासतमें बौद्ध गृहस्थोंके दल पाये गये हैं। कहा जाता है कि जगन्नाथका मंदिर पहले बौद्धोंका था, बादमें बुद्धमूर्तिके सामने किसी वैष्णव राजाने एक दीवार खड़ी कर दी और इन दिनों जिसे जगन्नाथ ठाकुरकी मूर्ति कहते हैं वह भी बुद्ध देवके अस्थि रखनेके पिटारेके सिवा और कुछ नहीं है ! उड़ीसाका महिमा सम्प्रदाय, बंगालके रमाई पंडितका शून्यपुराण, वीरभूममें पाई जानेवाली धर्म-पूजा आदि बातें आज भी इन प्रदेशोंमें बौद्ध धर्मके भन्नावशेष हैं।

महिमा सम्प्रदायकी कहानी बड़ी मनोरंजक है । सन् १८७५ ई. में इस सम्प्रदायके एक अन्ध मनुष्यको, जिसका नाम 'भीम भोई' था, बुद्धदेवने स्वप्न दिया कि वह उनके धर्मका प्रचार करे । इस कार्यके पुरस्कार स्वरूप बुद्धदेवने भीम भोइकी आँखें पहले ही ठीक कर दी । देखते देखते हजारोंकी संख्यामें उसके शिष्य जुट गये । भीम भोईने हजारों शिष्योंके साथ जगन्नाथके मंदिरपर आक्रमण कर दिया; उद्देश्य था, दीवार तोड़कर बुद्धमूर्तिका उद्धार करना। पर उड़ीसाके राजाने उसके आक्रमणको रोक लिया और भीम भोईको दबा लिया। आतंकित होकर उसके शिष्य उड़ीसाके दूर दूरके कोनोंमें जा छिपे और अब भी किसी न किसी रूपमें अपनी गुरु-परंपरा रखते आ रहे हैं। इन बातोंसे यह अनुमान आसानीसे किया जा सकता है कि हिन्दी साहित्यके जन्म-कालके समय बौद्ध धर्म एकदम नष्ट तो हो ही नहीं गया था, जीवित जोशके साथ वर्तमान भी था। जनसाधारणके साथ उसका योग था ही। मगध और बंगालमें मुसलमानी धर्मके आक्रमणसे बौद्ध और हिन्दू मन्दिर समान भावसे आक्रान्त हुए; मंदिरों, मठों और बिहारोंको समान भावसे ध्वंस किया गया । फिर भी पाराणिक धर्म नहीं बच सका। क्योंकि पहलेका सम्बन्ध उन दिनों समाजसे यह और दूसरेका केवल बिहारोंसे ।

नेपालमें इस समय जो बौद्ध धर्म वर्तमान् है, वह बहुत कुछ उसी ढंगका होना चाहिए जैसा किसी समय वह बंगाल और मगधमें रहा होगा। नवीं और दसवीं शताब्दियोंमें नेपालकी तराइयों में शैव और बौद्ध साधनाओंके सम्मिश्रणसे नाथ-पेथी योगियोंका एक नया संप्रदाय उठ खड़ा हुआ। यह संप्रदाय काल-क्रमसे हिन्दीभाषी जनसमुदायको बहुत दूर तक प्रभावित कर सका था । कबीरदास,