पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१९५

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका बहुत-सा अंश इस युद्धकी कहानीसे किसी प्रकार सम्बद्ध नहीं है । शत शत वर्षों तक मूल कहानी के इर्द-गिर्द अनेक प्राचीनतर आख्यान और तत्त्ववाद जोड़े जाते रहे हैं। ये आख्यान मूल कहानी में इतने प्रकारसे और इतने रूपमें आ मिले हैं कि शायद यह निर्णय कमी नहीं हो सकेगा कि मूल कहानी क्या थी और उसमें कौन-सी कहानी का जोड़ी गई। असल में महाभारत उस युगकी ऐतिहासिक, नैतिक, पौराणिक, उपदेशमूलक और तत्ववाद-सम्बन्धी कथाओंका विशाल विश्व-कोश है। भारतीय दृष्टिसे महाभारत पाँचवाँ वेद है, इतिहास है, स्मृति है (शङ्कराचार्य), शास्त्र है और साथ ही कान्य है। आज तक किसी भारतीय पंडित या आचार्यने इसकी प्रामाणिकतापर सन्देड नहीं किया। कमसे कम दो हजार वर्षसे यह भारतीय जनताके मनोविनोद, ज्ञानार्जन, चरित्र-निर्माण और प्रेरणा-प्राप्तिका साधन रहा है। स्वयं महाभारत अपने विषयमें कहता है-जैसे दहीम मक्खन. मनुष्यों में ब्राह्मण, वेदों में आरण्यक, औषधों में अमृत, जलाशयोंमें समुद्र और चतुष्पादोंमें गौ श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त इतिहासमैं यह 'भारत' श्रेष्ठ है (१-१-२६१-३)। इस आख्यानको सुननेके बाद अन्य कथाएँ उसी तरह फीकी मालूम होंगी जिस प्रकार कोकिलकी वाणी सुनकर काककी वाणीका सुनना । जैसे पंचभूतसे लोककी तीन संविधियाँ उद्भत होती हैं, उसी प्रकार इस इतिहासको सुनकर कविबुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं (१-२-३८२-३)।" न्यास देवने महाभारतकी कथा वैशम्पायन नामक अपने शिष्यको सुनाई। इन्हीं वैशम्पायनने नागयज्ञके अवसरपर यह कथा दूसरी बार सुनाई। तीसरी बार सूत-पुत्र शौनकने ऋषियोंको सुनाई। सारा महाभारत वैशम्पायन और जनमेजयके संवादके रूपमें कहा गया है। इन्हीं संवादोंके भीतर अन्यान्य चरित्रोंके संवाद होते रहते हैं। इस अन्तःसंवादोंमें जो बात विशेष रूपसे याद रखनेकी है वह यह है कि युद्धकी सारी कथा, जिसे महाभारतका केन्द्र कहा जा सकता है, संजयने धृतराष्ट्रको सुनाई है। पंडितोंका विश्वास है कि इस प्रकार संवादके रूपमें लिखा जाना ही महामारतकी प्राचीनताके प्रमाणोंमैसे एक है। बादमें महाभारतका यह दंग पुराणोंने ग्रहण किया। पर यह ध्यान देनेकी बात है कि वाल्मीकीय रामायणमें इस प्रकारके संवादसूचक पृथक् वाक्यांश ( जैसे 'जनमेजय उवाच) नहीं हैं।