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भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
 


ऐसा करनेकी चेष्टा भी की है, पर इसका अन्तर्निहित अर्थ एकदम सत्य है । ये आचार्यगण दार्शनिक पंडित थे, इनकी प्रतिभा और विद्वत्ता अनुपम थी। इसलिए इनके द्वारा बौद्ध धर्मके निर्वासन और निरसनका यही अर्थ हो सकता है कि बुद्धिजीवियों और ऊपरके स्तरके लोगोंके मनपरसे बौद्धधर्मके दार्शनिक युक्ति-जालकी आस्था उठ गई। ये लोग असल में बौद्ध तत्त्ववादके कायल थे, भक्तिवादके नहीं। पर साधारण जनताका तत्ववादसे कोई संबंध नहीं था ऐसा हो सकता है कि राजा लोग जब बौद्ध तत्ववादके कायल नहीं रहे तब बड़े बड़े बौद्ध मठ, जो अधिकांशमें राजकीय सहायतासे चल रहे थे उठ गये होंगे ! पर उन्होंने निचले स्तरके आदमियोंमें जो प्रभाव छोड़ा था, उसमें केवल नाम-रूपका परिवर्तन हुआ, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शंकराचार्यके तत्ववादकी पृष्ठ- भूमि में बौद्ध तत्ववाद अपना रूप बदल कर रह गया । बड़े बड़े बौद्ध मठोंने शैव मठोंका रूप लिया और करोड़ों की संख्यामें जनता आज भी उन मठोंके महन्तोंकी पूजा करती आ रही है। वस्तुतः हर्षके बाद उत्तर भारतमें (विशेष कर इन प्रदेशोंमें) बहुत दिनोंतक बौद्ध धर्मको कोई राजकीय सहारा नहीं मिला । न मिलनेके कारण या तो बौद्ध संन्यासियोंको उन स्थानोंपर चला जाना पड़ा जहाँ उन्हें संरक्षण मिल सकता था, या निचले स्तरके लोगोंको अधिकाधिक आकृष्ट करना पड़ा। आठवीं-नवीं शताब्दीमें बौद्ध महायान सम्प्रदाय लोका- कर्षणके रास्ते बड़ी तेजीसे बढ़ने लगा। वह तंत्र, मंत्र, जादू, टोना, ध्यान, धारणा आदिसे लोगोंको आकृष्ट करता रहा । यद्यपि 'सद्धर्म-पुण्डरीक' आदि प्राचीन महायानीय ग्रंथों में ही इन बातोंके जीवाणु वर्तमान थे पर इन शताब्दि- योंमें वह इस रास्ते बड़ी तेजीसे मुड़ पड़ा । महायान शाखाकी अन्तिम परिणति अभिचारादिमें ही हुई।

आठवीं शताब्दीमें बंगाल में पाल राज्य कायम हुआ। यही वंश भारतवर्षमें बौद्ध धर्मका अन्तिम शरणदाता रहा। यहाँ आकर और नेपाल और तिब्बतमें जाकर बौद्ध धर्मका संबंध तंत्रवादसे और भी अधिक बढ़ गया । जिन दिनों हिन्दी साहित्यका जन्म हो रहा था उस दिनों भी बंगाल और मगध तथा उड़ीसा बड़े बड़े बौद्ध बिहार विद्यमान थे जो अपने मारण, मोहन, वशीकरण और उच्चाटनकी विद्याओंसे और नाना प्रकारके रहस्यपूर्ण तांत्रिक अनुष्ठानोंसे जन-समुदायपर अपना प्रभाव


★देखिए, परिशिष्ट : बौद्धोंका संस्कृत-साहित्य ।