पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१८९

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका युगको सबसे बड़ी विशेषता है धर्मशास्त्रोंकी टीकाएँ। ये टीकाएँ कमी कभी विराट मौलिक ग्रन्थ हुआ करती थीं। टीकापन इनमें नाममात्रको ही रहता था। मनुके टीकाकार कुल्लूक भट्ट, मेधातिथि और गोविन्दराज टीकाकारके रूपमें ही विख्यात हैं । अपरार्क, कर्क, नारायण, वरदराज, असहाय, रङ्गनाथ, सायण आदि आचार्य अपनी टीकाओंसे अमर हो गये हैं। इन. टीकायोंमें टीकाकारोंके अद्भुत पाण्डित्य और बहुश्रुतताको देखकर दङ्ग रह जाना पड़ता है। पर इससे भी अधिक आकर्षक हैं इस युगकी दार्शनिक भाषी टीकाएँ। न तो दर्शनोपरके भाष्य ही महज टीका हैं और न माष्योंकी टीकाए ही। मूलको अपने विशेष सिद्धान्तका समर्थक सिद्ध करने के लिए ही ये भाष्य लिखे गये थे और इन भाष्योंकी टीकाओं में विषयको और भी सावधानीसे और भी सूक्ष्मताके साथ विवृत किया गया है। भाष्यकारोंकी भाँति ये टीकाकार भी असाधारण-प्रतिभाशाली पण्डित थे । संस्कृत साहित्यका अधिकांश पाण्डित्य इन टीकाकारोंके ही हाथ रक्षित हुआ है ! वाचस्पति मिश्रने छहों दर्शनोपर टीकायें लिखी थीं। नव्य न्यायके ग्रन्थों में टीकाएँ मूलग्रन्थसे कहीं अधिक जटिल समझी जाती हैं। एकाधिक बार टीकाकी टीका तथा उसकी भी टीका होती है और फिर भी टीका करनेका अवसर रहा ही करता है। आये दिन पण्डितगण टीका- की चौथी, पाँचवीं और छठी पुश्त तक तैयार करते रहते हैं। यह क्रम आज भी चल रहा है। निबन्ध राजा भोज एक तरहसे अन्तिम हिन्दू संरक्षक थे जिन्होंने केवल विद्वानोंका आश्रय ही नहीं दिया, नये सिरेसे ग्रन्थ लिखे । इन्होंने ज्योतिष, तन्त्र और स्मृतिपर ग्रन्थ लिखे। बादमें मुसलमानी शासनके प्रभाव मौलिक ग्रन्थोंकी वृद्धि रुक गई। इसी समय बड़े निबन्ध लिखे गये जिनमें शत शत प्रामाणिक अन्थोंके मतोंकी आलोचना करके शास्त्रीय व्यवस्थाओं का निर्देश होता था। कन्नौजके लक्ष्मीधर, कर्नाटकके मध्वाचार्य, बंगालके शूलपाणि और जीमूतवाहन, मिथिलाके चण्डेश्वर और वाचस्पति मिश्र, उड़ीसाके विद्याधर और नरसिंह, बुन्देलखण्डके मित्र मिश्र, कुमायूके अनन्तभट्ट और तिलंगानेके देवान्नभट्टा, काशीके कमलाकरभट्ट और नवद्वीपके रघुनन्दन आदि पण्डितोंके निबन्ध-ग्रन्थोंमें अद्भुत पाण्डित्यका परिचय मिलता है।