पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१८८

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संस्कृत साहित्यका संक्षिप्त परिचय नाटक और काव्यके विवेचनात्मक प्रथा नाटक और नाट्यकलासम्बन्धी आलोचना इस देश में बहुत पुरानी है। कुछ पण्डितोंकी रायमें यह वेदोंसे भी बहुत पुरानी है। सन् ईसबोके बहुत पूर्व अनेक नाट्य-सूत्र रचे जा चुके थे। इसमें नाटकोका ही विवेचन नहीं था, रस, अलङ्कार, सङ्गीत, अभिनय आदि काव्यसम्बन्धी सभी विषयोंका समावेश था। सन् ईसवी के आरम्भके समय इन सभी ग्रन्थों का तार सङ्कलन करके भारतीय नाट्यशास्त्र संग्रहीत हुआ। इसके बाद भामह और दंडीके अलंकार-विवेवनके ग्रन्थ पाये जाते हैं जो शायद पाँचवीं और छठी शताब्दियों में लिखे गये थे। वामन, रुव्यक, राजशेखर आदि अनेक आचार्यों ने अपने अपने विशेष काव्य सिद्धान्तके प्रतिपादनात्मक अलंकार-ग्रन्थ लिखे । आनन्दवर्धनने ध्वन्यालोकने अत्यन्त विद्वत्ता के साथ इस शतका प्रतिनादन किया कि ध्वनि ही काव्यकी आत्मा है; रस सर्वोत्तम श्वानि है। आनन्दवचनके मनको सर्वाधिक बल अभिनव गुप्त जैसे प्रतिभाशाली टीकाकारसे मिला। फिर नाना सिद्धान्तोंपर गम्भीर विवेचना करके मम्मटने ईसाकी दसवीं शताब्दी में काव्य-प्रकाश लिया जो इस विषयका सर्वोत्तम ग्रन्थ माना जाता है। मम्मटके बाद उल्लखयोग्य आचार्य साहित्यदर्पण कार विश्वनाथ और रसगङ्गाधरकार जगन्नाथ हुए। पण्डितराज जगन्नाथ स्वयं अच्छे कवि थे। उनके विषय में कहा सकता है कि वे आलोचकोंमें सबसे बड़े कवि और कवियों में सबसे बड़े अलोचक थे। इन आचार्योंके बाद और भी अनेक पण्डितोंने ग्रन्थ और टीकाएँ लिखीं। पर अलंकारमात्रके इस अभ्युदयसे वास्तविक काव्यको लास नहीं पहुँचा । इन अलकारोंने कुटकर श्लोकोंकी प्रथाको उत्तेजित किया और उक्ति-चमत्कारपर जोर दिया । यह एक आश्चर्यकी बात है कि काव्य-विवेचना जिस समय अपने चरम उत्कर्षपर थी, कविता उसी समय गिरती जा रही थी। सङ्कीर्ण काव्य, धर्म और दर्शनपर टीकाएँ काव्यके अपकर्ष-कालमें भी संस्कृत साहित्यमें अच्छी कविताओंकी कमी न थी, पर इन कविताओं में ज्यादातर कृत्रिम वाक्य-विन्यास और दरबारीपन आ पाया था। इस कालमें कुछ जीवन-चरित, ऐतिहासिक प्रबन्ध लिखे गये। जैन आचार्योंने कई उल्लेख योग्य ऐतिहासिक प्रबन्ध लिखे । पर इस