पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१८२

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संस्कृत-साहित्यका संक्षिप्त परिचय हैं वह उतना पुराना नहीं है। समय समयपर इनमें परिवर्तन होता रहा है। महाभारत साधारणतः कई रूपोंमें उपलब्ध होता है। उत्तर भारतमें उसका एक रूप है, दक्षिण भारतमें दूसरा और मलबारमै तीसरा। तीसरा महाभारत, विद्वा- नोंकी रायमें, ई० पूर्वकी दूसरी शताब्दीमें पूर्ण हो गया था। उत्तर और दक्षि- भके महाभारतों में बहुत-सा प्रक्षेप है। रामायण भी पूर्ण भारतमें एक तरहकी है, मध्यभारतम दूसरी तरहकी और पश्चिमी भारतम तीसरी तरहकी। म०म० हरप्रसाद शास्त्रोका कहना है कि रामायणके प्रथम और सतम काण्ड बादके पुराणोको संख्या इस देश में कितनी है, यह बताना कठिन है। साधारणतः अठारह महापुराण्ड और इतने ही उपपुराणोंकी प्रधानता है, फिर भी पुराण नामले प्रचलित अन्थों की संख्या सौसे भी ऊबर है। पुराण कब बने थे, यह कहना बड़ा मुश्किल है । सभी पुराण एक ही समयमें नहीं बने । पजिंटर, जो इस विषयके वैज्ञानिक विवेचक माने जाते हैं, कुछ पुराणोंको सन् इसवीके पूर्व- वर्ती मानने में नहीं हिचकते । एक अत्यन्त विवादास्पद सिद्धान्त जैकसनने स्थिर किया था जिसके अनुसार सन् ई. के छ: सौ वर्ष पूर्व पुराण नामक कोई ग्रन्थ था जिसने नाना सम्प्रदायोंके हाथमें पड़कर नाना माँतिका रूप धारण किया है। आजकल यह विश्वास किया जाने लगा है कि पुराणों में ऐसी बहुत-सी कहा- नियाँ और ऐतिहासिक घटनाएँ विवृत हैं जो आर्य-पूर्व जातियोंकी चीज़ हैं। स्व. विद्वद्वर काशीप्रसाद जायसवालने पुराणों के आधारपर इतिहासकी प्रामाणिक सामग्रियाँ संग्रह की हैं। सो कुछ भी क्यों न हो, म० म० हरप्रसाद शास्त्रीका बह कहना बिल्कुल ठीक है कि सन् ई. की पाँचवीं शताब्दीमें पुराण तैयार हो चुके थे, यद्यपि बादमें भी उनमें प्रक्षेप होता रहा है। इन पुसणोंमें भारतीय धर्ममत, इतिहास और साधनाके अध्ययनकी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। पौरा- णिक साहित्य बहुत बड़ा और मूल्यवान साहित्य है। जैनोंक भी बहुतसे पुराण लिखे गये जो अधिकांश ब्राह्मणों की पुराणों की प्रतिद्वंद्वितामें लिखे गये होंगे। धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और कामशास्त्र कल्पसूत्रों की चर्चा करते समय बताया गया है कि इन सूत्रोंको आश्रय करके एक विशाल साहित्यका निर्माण हुआ । स्मृतियाँ, जो इस विशाल साहित्यकी अङ्ग है, ऊपर बताये हुए, पुराण-कालमें ही अधिकतर लिपिबद्ध हुई। सन्