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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


किये जा सके हैं उनसे इतना निःसंकोच कहा जा सकता है कि मुसलमानी आक्रमणके आरंभिक युगोंमें भारतवर्षसे इस धर्मकी एकदम समाप्ति नहीं हो गई थी । हम आगे चलकर देखेंगे कि इन प्रदेशोंके धर्ममत, विचार-धारा और साहित्यपर इस धर्मने जो प्रभाव छोड़ा है, वह अमिट है।

लेकिन जब मैं ऐसा कहता हूँ तो 'प्रभाव' शब्दका जो अर्थ समझता हूँ : उसको ध्यान में रखना चाहिए । मैं यह नहीं कहता कि हिन्दीभाषी प्रदेशका जनसमुदाय इन दिनों बौद्ध था । वस्तुतः सारा समाज किसी भी दिन बौद्ध था या नहीं, यह प्रश्न काफी विवादास्पद है। कारण यह है कि बौद्ध धर्म संन्या- सियोंका धर्म था, लोकके सामाजिक जीवनपर उसका प्रभुत्व कम ही था। जिस प्रकार आजके नागा सम्प्रदायको देखकर कोई विदेशी यात्री कह सकता है कि भारतवर्षमें नागा सम्प्रदाय खूब प्रबल है, परन्तु यह बात सच होते हुए भी इसकी सचाईके साथ सामाजिक जीवनका गहरा सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार चीनी यात्रीके यात्रा-विवरणका भी विचार होना चाहिए। हम उस विवरणसे इतना ही मान सकते हैं कि लोग बौद्ध संन्यासियोंका आदर-सत्कार करते थे और उनके ही ढंगपर अपने आपके विषयमें, अपनी दुनिया के विषयमें और लोक-परलोकके विषयमें सोचने लगे थे। हमारे सामने आज भी भारतीय गृहस्थ परस्पर-विरोधी मतोंके माननेवाले साधुओंकी तथा भिन्न भिन्न सम्प्र- दायके भिन्न भिन्न प्रकृतिके देवताओंकी पूजा करता है। हुएन्त्सांग के युगमें यही अवस्था रही होगी। इससे यह समझना सरल है कि उन दिनों हिन्दू समाजमें लोग बौद्ध भिक्षुओंके उपदिष्ट देवताओंकी, कल्याण-कामनासे पूजा करते थे और उनके बताये हुए ढंगसे जप आदि भी करते थे । इस प्रकार पुश्तदर- पुश्तसे होता आता था और लोगोंके मनमें इन देवताओं और पूजापद्धतियोंके प्रति एक अपनापनका भाव आ गया था जो बौद्ध मठोंके उठ जानेके बाद भी उठ नहीं गया; बल्कि समाजमें ज्योंका त्यों रह गया । पर चूंकि बौद्ध संन्यासी ही उसका असली तत्त्व समझाया करते थे इसलिए उनके अभावमें वह नाना विकृत रूपोंमें और कमी कभी नाम-रूप बदलकर मूलरूपमें ही चलने लगा । 'प्रभाव' पड़नेका मेरी दृष्टिम यहाँ यही अर्थ है

बौद्ध धर्मका इस देशसे जो निर्वासन हुआ उसके प्रधान कारण शंकर, कुमारिल और उदयन आदि वैदान्तिक और मीमांसक आचार्य माने जाते हैं ! इस कथनको ऐतिहासिक दृष्टि से तो असत्य सिद्ध किया जा सकता है—लोगोंने ।