पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१७८

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संस्कृत-साहित्यका संक्षिप्त परिचय और इनमें कर्मकाण्डकी ही प्रधानता है; कब और कैसे अग्नि प्रज्वलित करना चाहिए, कुश किधर और क्यों रखना चाहिए आदि बशतम्बन्धी अनेक छोटी मोटी बातोंका विवेचन किया गया है तथा जगह जगह ऐतिहासिक और परम्परा-प्रास कहानियाँ भी हैं जो बादमें चलकर पुराण और इतिहासका रूप धारण करती हैं। यह ध्यान देनेकी बात है कि ब्राह्मणों में सम्पूर्ण संहिताको प्रामाण्य रूपमें स्वीकार कर लिया गया है, अर्थात् संहिता और ब्राझण-कालके भीतर काफी अन्तर वर्तमान था। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि संहिता और ब्राह्मणों के बीच में कुछ और साहित्य बना ही नहीं । असलमें ब्राह्मणों से ही अनेक लुप्त हो गये हैं और यह जानने का कोई उपाय नहीं रह गया है कि उनमें क्या था । ब्राह्मणोंने जिस दृष्टिसे संहिताको देखा है वह . यद्यपि कर्मकाण्ड-प्रधान है, फिर भी उसमें व्याकरण, आयुर्वेद, दर्शन आदिका अस्पष्ट रूप विद्यमान है। ब्राह्मणोंके अन्तमें दादोनिक अध्यायोंके रूपमें आरण्यक और उपनिषद हैं। इनमें आध्यात्मिक बातोंका बड़ा गम्भीर विवेचन किया गया है। भारतवर्षके सभी दार्शनिक सम्प्रदाय (बौद्धों और जैनोको छोड़कर) इन उपनिषदोंमें ही अपना आदि अस्तित्व स्वीकार करते हैं। प्रधान प्रधान ब्राह्मण ये हैं : ऐतरेय और शावायन (ऋग्वेदके); तैत्तिरीय (कृष्ण यजुर्वेदका); शतपथ (शुक्ल यजुर्वेदका); ताण्ङ्म या पञ्चविंश; तवलकार या जैमिनीय (सामवेदका); और गोपथ (अथर्ववेदका)। जैसा कि पहले ही बताया गया है ब्राह्मणों के अन्तमें आरण्यक हैं और पारण्यकोंके अन्तमें उपनिषद् । उपनिषदोंकी संख्या वैसे तो बहुत है पर ग्यारह प्राचीन हैं: ऐतरेय और कौशीतकी (ऋग्वेदके); छान्दोग्य और केन (सामवेदके); तैत्तिरीय, कठ और श्वेताश्वतर (कृष्ण यजुर्वेदके); बृहदारण्यक, ईश (शुक्र यजुर्वेदके) और प्रश्न, मुण्डक तथा माण्डूक्य (अथर्ववेदके)। महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्रीका विचार है कि सन् ईसवीसे एक हजार वर्ष पहले तक यहाँ तकका साहित्य निश्चित रूपसे रचित हो चुका था। वेदाङ्ग-साहित्य (ई० पू० १०००-४०० ई० तक) वैदिक साहित्य काफी बड़ा हो चुका था। उसकी वैज्ञानिक छान-बीन भी आरम्भ हो गई थी। वेदाङ्ग युगमे इन्हीं प्रयत्नोंका संग्रह हुआ। उन दिनों