पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१७२

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका आवश्यकताएँ भी उतनी ही अधिक हैं । जितना कार्य हुआ है वह सन्तोषजनक बिलकुल नहीं है, पर आशाजनक अवश्य है। हमने मुक्त दृष्टि पाई है, हम संसारकी प्रत्येक वस्तुको अपनी आँखों देखना चाहते हैं, यह कम नहीं है । यदि हममें सुबुद्धि उत्पन्न हो गई है तो चिन्ताकी कोई बात नहीं, क्योंकि कुलीन जनकी निर्धनता खलनेवाली बात नहीं होती, उसकी बुद्धिहीनता या कुबुद्धि ही चिन्ताका कारण होती है। हम कुलीन हैं, हमारे पूर्वजोने ज्ञान विज्ञानके प्रत्येक क्षेत्रमें गम्भीर चिन्ता की थी, हमारा पुराना साहित्य यद्यपि अधिकांश खो गया है, तो भी जितना है उतना ही अत्यन्त विशाल और गहन है । हममें अगर आत्मचेतना आ गई है. तो निराश होनेका कोई कारण नहीं। ज्यों ज्यों भारतवर्ष अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रमै आलोचनाका प्रधान विषय होता है त्यो त्यों उसे उसके यथार्थ रूपमें जाननेको प्रवृत्ति सारी दुनिया--- विशषकर एशियामें-बढ़ती गई है। इसीलिए हिन्दी अब भारतवर्षकी सीमाके बाहर भी पढ़ी-पढ़ाई जाने लगी है। उनके विचारकोंके विचारों के आधारपर भारतवर्षकी आशा-आकांक्षाको समझने का प्रयत्न होने लगा है।