पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१७०

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१५० हिन्दी साहित्यकी भूमिका कुछ थोड़ेसे अपवादोंको छोड़कर अधिकांश प्रवृत्ति समाजवादी रही । विहारमें 'दिनकर ने बहुत ही क्रान्तिकारी गान गाये। शुरू-शुरूमें उनकी कविताओं- में युवजनोचित्त कल्पनाका प्राधान्य रहा पर बादमें उनकी प्रवृत्ति भी नवयुगके अन्यान्य कवियों के समान ही हो गई। इस कालमें बिहारमें कई प्रतिभाशाली कवियोंका प्रदुर्भाव हुआ। 'नेपाली' और आरसीप्रसाद सिंहने अधिक कीर्ति प्राप्त की। नये नाटककारोंमें सेठ गोविन्ददास, लक्ष्मीनारायण मिश्र और प्रेमी' ने नये आदर्श उपस्थित किये। '. द्वितीय महायुद्ध आरम्भ होनेके बाद-विशेषकर रूसके युद्ध-क्षेत्रमें आ आनेके बाद-नवीन साहित्यिकों में मतभेद दिखाई दिया। कुछ दिनोंतक हमारे नेताओंमें भी निष्क्रियताका भाव बना रहा । युद्ध अप्रत्याशित नहीं था। परन्तु हमने-कमसे कम साहित्यिकोंने युद्धकालीन कर्तव्यकी बात सोची ही नहीं थी और जब युद्ध शुरू हुआ तो कुछ दिनोंतक ऐसा भाव बना रहा जैसे हमें कहीं भी कुछ सूझ न रहा हो। इस युद्ध में साम्राज्यवादने समाजवादसे. हाथ मिलाया। हमारे साहित्यिक अबतक साम्राज्यवादके विरोधी. थे और समाजवादकी ओर झुक रहे थे। यहाँ उन्हें भारी कर्तव्य-द्वन्द्वका सामना करना पड़ा। एक दलने इस गठबन्धनमें समाजवादको प्रबल पाया और स्पष्ट घोषणा की कि यह युद्ध जनताका युद्ध है । अन्तमें साम्राज्यवाद इसमें अवश्य पिट जायगा। दूसरेने सन्देहके साथ कहा कि साम्राज्यवाद कोई 'कुम्हड़ेकी बतिया' नहीं है जो उँगली देखते ही मर जाय। दोनों ओरसे तौकी बौछार जारी रही। जिस प्रकार हम युद्ध पूर्व कालमें यह स्थिर नहीं कर सके थे कि युद्धके समय हमारा क्या कर्तव्य होगा उसी प्रकार इस समय भी यह ते नहीं कर सके कि शान्तिकालमें हमारा क्या कर्तव्य होगा। युद्ध-कालमें हम कोई बड़ा साहित्यक पैदा कर सके हैं या नहीं यह भविष्य ही बतायेगा, मेरा विश्वास है, नहीं कर सके हैं । मेरा यह भी विश्वास है कि इस युद्धमै साम्राज्यवादकी कमर टूट गई है। वह अपना पुराना बल दीर्घ कालतक संचय नहीं कर सकेगा, और इस बीच नयी व्यवस्था काफी शक्तिशाली हो जायगी। हमारे साहित्यिकोंको अब उस नयी व्यवस्थाकी ही फिक्र करनी चाहिए। राजनीतिक नेता जब अपना कर्तव्य स्थिर कर लेंगे तो हम भी उनका अनुसरण करने लगेंगे, यह कुछ ठीक बात नहीं है। साहित्यसष्टाकी आँखें दरतक जानी चाहिए।