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भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास
 


अगर आप भारतवर्षके मान-चित्रमें उस अंशको देखें जिसकी साहित्यिक भाषा हिन्दी मानी जाती है तो आप देखेंगे कि यह विशाल क्षेत्र एक तरफ़ तो उत्तरमें भारतीय सीमाको छुए हुए है जहाँसे आगे बढ़नेपर एकदम भिन्न जातिकी भाषा और संस्कृतिसे सम्बन्ध होता है और दूसरी तरफ़ पूर्वकी ओर भी भारतवर्षकी पूर्व सीमाओंको अनानेवाले प्रदेशोंसे सटा हुआ है। पश्चिम और दक्षिणमें भी वह एक ही संस्कृति, पर भिन्न प्रकृतिके प्रदेशोंसे सटा हुआ है। भारतवर्षका ऐसा कोई भी प्रान्त नहीं है जो इस प्रकार चौमुखी प्रकृति और संस्कृतिसे घिरा हुआ हो। इस घिरावके कारण उसे निरन्तर भिन्न भिन्न संस्कृतियों और भिन्न भिन्न विचारोंके संघर्ष आना पड़ा है । पर जो बात और भी ध्यान-पूर्वक लक्ष्य करनेकी है वह यह है कि यह मध्यदेश वैदिक युगसे लेकर आज तक अतिशय रक्षणशील और पावित्र्याभिमानी रहा है। एक तरफ तो भिन्न विचारों और संस्कृतियों के निरन्तर संघर्षने और दूसरी तरफ रक्षण-शीलता और श्रेष्ठत्वाभिमानने इसकी प्रकृति, इन दो बातोंको बद्ध- मूल कर दिया है-एक अपने प्राचीन आचारोंसे चिपटे रहना पर विचारमें निरन्तर परिवर्तित होते रहना, और दूसरे धर्मों, मतों, सम्प्रदायों और संस्कृति- योंके प्रति सहनशील होना । अब देखा जाय कि हिन्दी साहित्यके जन्म होनेके पहले कौन-कौनसे आचार-विचार या अन्य उपादान इस प्रदेशके समाजको रूप दे रहे थे।

इस वातका निश्चित प्रमाण है कि सन् ईसवीकी सातवीं शताब्दीमें युक्त- प्रान्त, बिहार, बंगाल, आसाम और नेपालमें बौद्ध धर्म काफी प्रबल था। यह उन दिनोंकी बात है जब इस्लाम धर्मके प्रवर्तक हज़रत मुहम्मदका जन्म ही हुआ था ! बौद्ध धर्मके प्रभावशाली होनेका सबूत चीनी यात्री हुएन्त्सांग के यात्रा-विवरणमें मिलता है । यह भी निश्चित है कि वह बौद्धधर्म महायान सम्प्रदायसे विशेष रूपसे प्रभावती था क्योंकि उत्तरी बौद्ध धर्म यदि हीनयानीय शाखाका भी था तो भी महायान शाखाके प्रभावसे अछूता नहीं था।★ सातवीं शताब्दीके बाद उस धर्मका क्या हुआ, इसका ठीक विवरण हमें नहीं मिलता पर वह एकाएक गुम तो नहीं ही हुआ होगा । उस युगके दर्शन-ग्रन्थों, काव्यों, नाटकों आदिसे स्पष्ट ही जान पड़ता है कि ईसाकी पहली सहस्राब्दीमें वह इन प्रान्तोंसे एकदम लुप्त नहीं हो गया था। इधर हालमें जो सब प्रमाण संग्रहीत


★देखिए,परिशिष्ट:बौद्धोंका संस्कृत-साहित्य |