पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१६८

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१४८ · हिन्दी साहित्यको भूमिका (३)'प्रसाद' ने यद्यपि प्राचीन गौरवका अध्ययन और मनन बहत अधिक किया था परन्तु उन्होंने अपने समस्त अध्ययनको मनुष्यकी दृष्टिसे देखनेका प्रयत्न किया। अध्ययन अध्ययन के लिए नहीं है, मनुष्यके उद्धार और उन्नयन के लिए है। शास्त्र-ज्ञान इसी महान् उद्देश्यकी सिद्धिसे सार्थक होता है । प्रसादने नाटक, काव्य और कहानी-उपन्यास लिखे हैं। विषय अधिकांश प्राचीन साहित्यसे लिये हैं पर सबको नवीन भारतके बीजारोपणमें विनियुक्त किया है। यह बात ध्यान देनेकी है कि प्रसादजीने हमारे आलोच्य कालमें अपनी भाषा और प्रकाशनभङ्गी बदल दी थी। अबतक हम भाषाके खरूपके विषयमै झगड़ रहे थे। पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी जैसे पुरुष और ईमानदार व्यक्तिके हाथों भाषा परिमार्जित और परिष्कृत हो चुकी थी। हिन्दी गद्य सब कुछको आत्मसात् और अभिव्यक्त करनेकी आकांक्षा लेकर आगे बढ़ा । इस कालमें मनुष्यकी वैयक्तिकताने निश्चित रूपसे साहित्यमै स्थान पाया । वह दिन सचमुच ही हिन्दीकी कविताकी मुक्तिका दिन था जब कविने परिपाटी-विहित रसज्ञता और रूढ़ि-समर्थित काव्य कलाको साथ ही चुनौती दी। मर्यादाविषयक अज्ञान और उपेक्षा दोनोंने उसकी मुक्ति में सहायता दी । यद्यपि बह मुक्त होकर ठीक रास्ते नहीं गया पर मुक्त वह निस्सन्देह हो गया । पुराने पण्डितोंने हुँझलाकर रोष प्रकट किया, मजाक उड़ाया, भद्दे-भद्दे नाम देकर उसे हतोत्साह करना चाहा, पुराने शास्त्रोंके जटिल तकाकी अवतारणा करके उसे डराना चाहा; पर वह इनसे विचलित नहीं हुआ। प्रसाद निराला, पन्त, सियारामशरण गुप्त, महादेवी वर्मा आदि कवियोंने रूढ़िमुक्त होकर अपनी बात कही । साहित्यकारका ध्यान ईश्वरकी ओरसे हटकर मानवताकी ओर गया । भजन-पूजनके स्थानपर पीड़ित मानवताके प्रति सहानुभूतिका भाव प्रतिष्ठित हुआ। प्रकृति केवल उद्दीपन- सामग्री न रहकर मनुष्य सहधर्मशीला बन गई। प्राचीन धार्मिक विश्वास- कर्मफलकी अवश्यम्भादिता, पूर्व और परजन्म, आदि--जिसने कवियोंको इस संसारको सामञ्जस्यपूर्ण विचानके अनुकूल देखनकी दृष्टि दी थी, शिथिल हो गया और कवि प्रत्येक वस्तुको अपनी दृष्टिसे देखनेका प्रयास करने लगे। पुराने भारतीय साहित्यमें समाज-म्यवस्थाके प्रति तीत्र असन्तोषके भाव नहीं थे. इस कालमें वे जमकर प्रकट होने लगे। परन्तु प्रथम दस वर्षांतकके