पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१६७

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उपसंहार विचार किया था-शब्द-शक्ति, गुणदोष, अलंकार-विधान, रस आदि सभी विषयों पर उनका अपना सुचिन्तित मत था। वे प्राचीन भारतीय आलंकारिकोको खूब समझते थे पर उनका अन्धानुकरण करनेवाले नहीं थे । रामचन्द्र शुक्लसे सर्वत्र सहमत होना सम्भव नहीं। वे इतने गम्भीर और कठोर थे कि उनके वक्तव्योंकी सरसता उनकी बुद्धिकी आँचसे सूख जाती थी और उनके मौका लचीलापन जाता रहता था । आपको या तो 'हाँ' कहना पड़ेगा या 'ना', बीच में खड़े होनेका कोई उपाय नहीं । उनका अपना' सत सोलह आने अपना है। वे तनकर कहते हैं---" में ऐना मानता हूँ, तुम्हारे मानने-न- माननकी मुझे परवा नहीं।" फिर भी अपनी प्रभावित करते हैं। नया लेखक उनसे डरता है, पुराना बनाता है, पण्डित सिर हिलाता है। वे पुरानेकी गुलामी पसन्द नहीं करते और नवीनकी गुलानी तो उनके लिए एकदम असह्म है। हाजी इसी बातमें बड़े हैं और इसी जगह उनकी कमजोरी है। यदि किसी को उन्होंने एक बार नवीनताकी गुलामी करते देख लियतो फिर दीर्घ कालतक वह उनके अविश्वासका पात्र बना रहा। (२)प्रेमचन्द हिन्दी कथा-साहित्यकी प्रौदताके सबूत हैं। उन्होंने अतीत गौरवका पुराना राग नहीं गाया । वे ईमानदारीके साथ अपनी वर्तमान अवस्थाका विश्लेषण करते रहे। उन्होंने अपनी औरतों समाजको देखा था। वे इस नतीजेपर पहुँचे थे कि बन्धन भीतरका है, बाहर का नहीं। बाहरी बन्धन भी दो प्रकारके है-मृतकालकी सञ्चित स्मृतियोका जाल और भविष्यकी चिन्लाले बचने के लिए संग्रहीत जड़-संभार । एकका नाम है संस्कृति, दुसरेका सम्पत्ति। एकका रथवाहक धर्म है, दूसरेका राजनीति है। अपने एक मौजी.. पान (प्रोफेसर मेहता) के मुंहसे 'गोदान में उन्होंने कहलवाया है.--" में भूतकी चिन्ता नहीं करता, भविष्यकी परवा नहीं करता । भविष्यकी चिन्ता हमें कायर बना देती है, मृतका भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवनकी * शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देनेसे वह और भीक्षीण हो जाती है। हम न्यर्थका भार अपने ऊपर लादकर रूढ़ियों और विश्वास तथा इतिहासोंके मलवेके नीचे दबे पड़े हैं, उठनेका नाम नहीं लेते।" प्रेमचन्दका यह विश्वास ही उनकी विशेषता है। उन्होंने बड़ी ईमानदारी और गहराईके साथ अपना विशेष दृष्टिकोण उपस्थित किया है।