पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१६५

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उपसंहार संवटनको क्षमता ही नहीं है। वह भ्रम टूट गया ! यूरोपीय राष्ट्रोंके संघटित दलोंमें जो एकता है वह उस एकतासे मिलती-जुलती है जो ठगों में पाई जाती है। दुनियाके शोषणके लिए ही इनके विशेषज्ञोंने नाना प्रकारको राजनीतिक और आर्थिक नैतिकताको 'बोलियाँ' बना रखी हैं । इतिहासको देखनेकी इनकी अपनी विशेष दृष्टि है, नृतत्स्व विद्याको समझनेके अपने तरीके हैं, और सब कुछ एक विशेष प्रकारकी स्थिति बनाये रखने के उद्देश्यसेलिना रावा है। साहित्य भी इस दृष्टि से एकदम अस्पृष्ट नहीं है। भारलवपने बहुत दिनोंके बाद पहली बार अनुभत्र किया कि हाथ पसारना लचाकी बात है। शानके क्षेत्र में भी वही पानेका अधिकारी होता है जो देनेक सामथ्ये रखता है। हर क्षेत्रमै दूसरोंका अनुसरण लनाजनक है। वही चल सकता है जो अपने पैरोंपर खड़ा हो सकता है, वह नहीं जो केवल चलनेवालोंके चलनेको नकल करना चाहता है। हमारा अतीत जो अबतक अभिभूत करनेवाला साबित हुआ था अब प्रेरणादायक सिद्ध हुआ। पुराने शास्त्रोंका महत्व इस बातमें नहीं है कि उनसे आधुनिक विदेशी ज्ञान-विज्ञानकी तुलना या आधुनिक व्यक्तियों के उत्कर्ष-अपकर्षकी जाँच की जाय; उनका महत्व इस बातमें है कि वे हमारी मानसिक दुर्बलताको झाड़कर हममें आत्म-बलका संचार करते हैं। दुनिया में हम नौसिखुए नहीं हैं। हमने ज्ञानकी प्रत्येक शाखापर स्वतन्त्र दृष्टिसे विचार किया है। हम आलसी नहीं थे, इस समय जैसे है उसी प्रकार बने रहना हमारा स्वाभाविक धर्म नहीं है ! संसारके अन्यान्य देशोंकी तुलनामें, समयपर विचार किया जाय तो, हम आगे ही रहते आये हैं। विपत्तियोंका सामना हमें पहली बार नहीं करना पड़ रहा है। हमारे इतिहासमें संघर्षों और संघातोंकी विशाल शंखला है। हम बराबर उन संघामसे तेजोहात होकर निकले हैं। । हममें स्वतन्त्र उद्भावनाशक्तिकी कमी कमी नहीं रही। दीर्घ निद्राके बाद भारतवर्ष पूर्ण चैतन्यके साथ जाग पड़ा । उसने सोचा हमें संसारकी जातियों को अपनेसे श्रेष्ठ समझनेकी भी आवश्यकता नहीं है, उनकी नकल करने की भी जरूरत नहीं है, हम अपना रास्ता आप निकाल लेंगे। १९२० ई० में भारत- वर्षके मानसमें कुछ इसी तरहकी विचारधारा बह रही थी। परन्तु यह समझन: