पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१६४

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हिन्दी साहित्य की भूमिका जोर डाल देता था, वह जान लेना चाहता था कि जो कुछ वह नया देख रहा है वह उसके पुराने अनुभवोंके विरुद्ध तो नहीं है। पुराना वैभव उसे अभिभूत किये हए था और नवीन बातोंको अस्वीकार करनेका कोई उपाय न था। इन दिनों प्रायः प्रतिवर्ष भूगर्भके नीचसे कोई न कोई खंडहर निकलकर भारतको प्राचीन समृद्धिकी स्मृतिको ताजा कर देता था, कोई न कोई पुरानी पोथी भारतीय मनीषाकी उत्कृष्टताके प्रति दुनियाको आस्थावान् बना देती थी। आज चीनसे तो कल जावासे आकर भारतीय सन्तों और आचार्योंके अपूर्व धैर्य, उत्साह और पांडित्यकी कहानी इस देशके शिक्षितोंको अभिभूत कर जाती थी। प्राचीन गौरव रह-रहकर मानो पृथ्वीके नीचेसे धक्का मारकर धरातलपर आ जाता था और पराधीन, दुर्गत भारतके चित्तमें उदासी और गर्व दोनों एक साथ भर जाते थे । उधर विज्ञान नित्य नवीन आश्चर्य ले आकर नवीनके प्रति उसको आस्थायुक्त बना रहा था। इस द्विमुख-प्रवृत्तिका निदर्शन उन दिनोंका साहित्य है। इस युगका भारत, महावीरप्रसाद द्विवेदी, अयोध्यासिंह उपाध्याय और मैथिलीशरण गुप्तका भारतवर्ष है---पुराने गौरवके प्रति अत्यधिक श्रद्धावान् और नवीन ज्ञानके प्रति भी आस्थायुक्त इस युगके साहित्यका सबसे बड़ा गुण यह है कि वह अपने आपको पहचानने में पूर्ण प्रयत्नशील है, पर दोष यह है कि वह हरएक बातमें किसी आप्तवाक्यपर अवलम्बित है । किसी वस्तु का मूल्य उसकी अपनी योग्यताके बलपर ही आँकनेकी प्रवृत्ति उन दिनों शिशु-अवस्थामें ही थी। इस देशके साहित्यिक उन दिनों निश्चित रूपसे आप्त-वाक्योंसे चालित हो रहे थे। ये 'आह' देशी भी हो सकते थे और विदेशी भी, नये भी हो सकते थे और पुराने भी । इनके 'आतत्व' के लिए भी खोज-पूछ करना उन दिनों आवश्यक नहीं माना जाता था। हमारे शिक्षित वर्यका अधिकांश उन दिनों यूरोपीय मनीषाकी श्रेष्ठता -स्वीकार कर चुका था। अचानक यूरोपका प्रथम महायुद्ध आँधीकी तरह आया और यूरोपीय श्रेष्ठताको अपने प्रचण्ड वेगमें बहा ले गया। देखा गया कि सारी बड़ी बड़ी बातोंके बावजूद भी मनुष्य सर्वत्र मनुष्य ही है। यूरोपके राष्ट्रीय संघटन वस्तुतः दुनियाको लूटने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धी हैं । हम यह समझे बैठे थे कि हममें