पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१६३

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उपहार १४३ था। मैथ्यू आरामा हमारा आत-बाय या बुराईपर से पहलेका भारतवर्ष यद्यपि आत्मचेतनासे शून्य नहीं था पर उसका चित्रपा मुक्त नहीं हुआ था। धर्म और समाजके क्षेत्रमें उन दिनों आर्यसमाज जबर्दस्त प्रभाव था | आर्यसमाजने भारतीय चित्तको बहुत झकझोर दिया था पर प्राचीन आत वाक्यको प्रमाण माननेकी प्रवृत्तिको उसने और भी प्रतिष्ठित कर दिया । इसका परिणाम सभी क्षेत्रों में देखा गया। साहित्यके क्षेत्रों भी इस समय तक प्रमाण-ग्रन्थोंके आधारपर विवेचना करनेकी प्रथा चल पड़ी थी। किसी कविके काव्यके उत्कर्ष या अपकर्षका निर्णय करने के लिए अलंकार-ग्रन्थों प्रमाण हूँढे जाते थे। पुराने कवियोंने ऐसा कहा है या नहीं, इस बातपर विचार किया जाता था; पुराने शास्त्रों में, ऐसा कहना अच्छा समझा गया है या बरा. ही शास्त्रार्थ किया जाता या और तब कहीं अच्छाई या बुराईपर फैसला दिया. जाता था। नयी शिक्षाने भी हमारा आप्त-वाक्योंवाला संस्कार ज्योंकायो दिया था। मैथ्यू आरनाल्ड और कालाईल भी हमारे लिए प्रमाणकोटिमें उसी प्रकार आ गये थे जिस प्रकार पुराने आलंकारिक आचार्य। नयो शिश एक प्रतिक्रिया यह भी हुई थी कि हर बातमें 'हमारे यहाँ ऐसा लिखा है। कहकर अपने देशके किसी आचार्यका मत, किसी आधुनिक लेखक र उसकी तुलना करके, श्रेष्ठ बताया जाता था। आधुनिक लेखकोंको प्रमाण उद्धृत करनेकी प्रवृत्ति तो हास्यास्पद रूप धारण कर चुकी थी। बहलसे और उर्द लेखकोंके मत भी बिना समझे-बूझे उद्धृत किये जाते थे। उदा करना यह उन दिनों गुण माना जाता था। किस साहरने हमारी भाषा और हमारे साहित्यके बारेमें कौन-सी स्तुति लिखी है यह बड़े आदरके साथ याद किया जाता था । अत्यन्त मनोरंजक बात यह थी कि कालिदासको 'भारतवर्षका शेक्सपियर' कहनेभै हम गर्व अनुभव करते थे. क्योंकि किसी श्वतांग पण्डितने ऐसा लिख दिया था । तुलसीदास, सूरदास. देव और बिहार के साथ भी शेक्सपियरकी एकाध उक्ति उकृत करके हिन्दी कवियोंका उत्कर्ष दिखाया जाता था। भारतवर्ष मानों दीर्घ निद्राके बाद उठकर नवीन आलोककी ओर देखा था, कभी उसके मनमें सन्देहका उदय होता था, कभी आशाका संचार था.। हर नई वस्तुको देखनेके बाद यह एक वार अपनी पुरानी याददा