पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१६२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिन्दी साहित्यकी भूमिक आज जब कि कवि अपनी ओरसे यथासम्भव कम कह कर वस्तुके यथार्च समझनेकी चेष्टा कर रहा है, व्यंग्यायका प्रधान होना ही उचित था । युद्धो त्तरकालीन यूरोपीय काव्यमें, कहते हैं, ऐसा ही हुआ है । परन्तु हिन्दीमें ऐस अभी नहीं हो पाया है। यहाँ काव्यका व्यंग्य गुणीभूत हो गया है । इस अत्यन्त सीमित कालकी कुछ परिमित कविताओंमें, जो अभी नितान्त भ्रणावस्था है हैं, यह बात चिन्ताजनक नहीं है। अभी कविके समस्त पाठ्य निरीक्षणों भीतरसे आधुनिक युगकी हड़बड़ी, उसकी दीनता और उसके दुःख प्रकाशित नहीं हो पाये हैं। अधिकांश कविताएँ चाइते हुए भी यह व्यंग्य करने में अस मर्थ रही हैं कि आजके चुगके व्यक्ति वर्ग-संघर्षसे ऐसी बुरी तरहसे पिस गया है कि उसे रोने-हँसनेकी या दुलार-प्यार जतानेकी फुरसत भी नहीं। फिर में इतनी आशा तो की ही जा सकती है कि इस प्रवृत्तिकी बढ़तीके साथ ही सार कवितामें ध्वनि-प्राणताकी मात्रा बढ़ती ही जायगी। लेकिन ध्वनि-प्राणता बढे या घटे, जो बात निश्चित है वह यह है कि प्राचीनोंद्वारा निर्धारित रसोंकी ध्वनिकी संभवना क्रमशः कम होती जा रही है। ये कविताएँ किसी स्थार्य भावको नहीं बल्कि नितान्त अस्थायी मनोभावोंको उत्तेजित करती हैं । ऐस जान पढ़ता है कि आगे चलकर इनमें संघर्षकी, असन्तोषकी, और असामंज- स्यकी ध्वनि प्रधान होती जायगी और सहयोगकी, संतोषकी और सामंजस्यकी ध्वनि क्रमशः क्षीण होती जायगी। काल-प्रवाह हमें इसी ओर लिये जा रहा है। ऊपर हम कविताकी चर्चा ही प्रधान रूपसे करते आये हैं किन्तु पिछले पचीस-बीस वर्षों में केवल कविताने ही नवीन रूप ग्रहण किये हों, ऐसी बात नहीं है। यह समय हिन्दीकी चौमुखी उन्नतिका है। प्रायः प्रत्येक क्षेत्रमें प्रतिमा- शाली लेखकोंका उदय हुआ है। संक्षेपमें इस विकासकी चर्चा कर लेनी चाहिए। सन् १९२० ई० भारतवर्षके लिए युगान्तर ले आनेवाला वर्ष है। इस वर्ष 'भारतवर्षका चित्त पुराने संस्कारोंको झाड़कर नवीन मार्गके अनुसन्धानमें प्रवृत्त हुआ था। नवीन आशा और नवीन आकांक्षाके प्रति जैसा अडिग विश्वास ' इस समय दिखाई दिया वह शताब्दियोंसे अपरिचित-सा हो गया था। इसके