पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१६१

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उपसंहार बल्कि उनके कष्टों का वर्णन कर मनुष्यकी सत्प्रवृत्तियोंको उत्तेजित करने के लिए कलम उठाते है ! कभी कभी एक ही कविमें इनमेंकी एकाधिक प्रवृत्तियाँ दृष्ट हुई है ! अभी ये प्रवृत्तियाँ ऐसी कोमलवस्थामें हैं कि उनके प्रतिनिधि कवियोंको ढूंढ़ निकलना कठिन है । पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रथम दो से अन्यतरका प्रकाश कई कवियों में अधिक स्पष्टता के साथ हुआ है। कुछ छिटके फुटके प्रयत्न उस जातिकी कविताके लिए भी हुए हैं जिन्हें प्रभाववादी सम्प्रदायकी कविता कहते हैं । इस श्रेणी के कवि वक्तव्य-विख्यकी प्रत्येक छोटी-मोटी विशेषताओंको या उनके सौकुमार्य आदि विशेष धर्मोको अनावश्यक विस्तारके साथ वर्णन करनेके पक्षपाती नहीं हैं। वे कहते हैं कि कलाक्री मनोहारिताको तूल देना व्यक्तिगत मोइका लक्षण है। वक्तव्य वस्तुको . रमणीयता नहीं, बल्कि उसकी यथार्थता वर्णनीय होती है। उसका कैरेक्टर' उसकी समग्रतामैसे प्रकाशित होता है, विशेषतामें नहीं। इस समग्रताको प्रस्फुटित करने की अभी चेष्टा भर ही हुई है, सफलता कम ही मिली है। इन नवीनतम प्रवृत्तियोके साथ ही साथ पुरानी कल्पना-प्रधान और चिन्तन- मूलक प्रवृत्तियाँ भी विद्यमान हैं । श्री निरालाने 'तुलसीदास के द्वारा एक नवीन्द्र, मार्गपर चलने की सूचना दी है। अपेक्षाकृत तरुण कवियों में अनुकरण की प्रवृत्ति खूब दिखाई पड़ी है। अधिकांश अनुकरण प्रसादजी, पन्तजी और महादेवी- जीकी कविताओंका हुआ है । कुछ अंश तक विवशतामूलक नैराश्य भावनाओं और तज्जन्य क्षणिक आनंदके यथालाभ-सन्तोषवादके अनुकरणकी भी चेष्टा हुई है। ऐसे तरूणोंकी यह ग्राहिका शक्ति मौलिकताके अभावकी निशानी है। इसका नियोग अन्य क्षेत्रोंमें होता तो साहित्यके लिए मंगलकी बात होती। दो कारणोंसे बहुत हालमें कविताकी भाषा और शैली में भी परिवर्तन हुआ है। एक तो विषयको जब अनासक्त और तद्गत भाषसे देखा जाता है तब स्वभावतः ही भावुकताको स्थान नहीं हो जाता। ऐसी अवस्थामें कवि वैज्ञानिक- की भाँति गद्यमय भाषा लिखने लगता है। दूसरे, विषयकी नवीनताको संपूर्ण रूपसे अनुभव करानेके लिए कविलोग जान बूझ-कर ऐसी भाषा और शैलीका व्यवहार करते हैं जो पाठकके मनको इस प्रकार झकझोर दे कि उसपरसे प्राची-