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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 


विद्वानोंने अपने ऊपर लिया है, वे भी हिन्दी साहित्यका सम्बन्ध हिन्दू जातिके साथ ही अधिक बतलाते हैं और इस प्रकार अनजान आदमीको दो ढंगते सोचनेका मौका देते हैं-एक यह कि हिन्दी साहित्य एक हतदर्प पराजित जातिकी सम्पत्ति है, इसलिए उसका महत्त्व उस जातिके राजनीतिक उत्थान- पतनके साथ अङ्गाङ्गि-भावसे संबद्ध है, और दूसरा यह कि ऐसा न भी हो तो भी वह एक निरन्तर पतनशील जातिकी चिन्ताओंका मूर्त प्रतीक है जो अपने आपमें कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता। मैं इन दोनों बातोंका प्रतिवाद करता हूँ, और अगर ये बातें मान भी ली जाय तो भी यह कहनेका साहस करता हूँ कि फिर भी इस साहित्यका अध्ययन करना नितान्त आवश्यक है, क्योंकि दस सौ वर्षों तक दस करोड़ कुचले हुए मनुष्योंकी बात भी मानवताकी प्रगतिके अनुसंधान के लिए केवल अनुपेक्षणीय ही नहीं बल्कि अवश्यज्ञातव्य वस्तु है । ऐसा करके इस्लामके महत्त्वको भूल नहीं रहा हूँ लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्यका बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।

अपनी बातको ठीक ठीक समझानेके लिए मुझे और भी हजार वर्ष पीछे लौट जाना पड़ेगा । आजके हिन्दू समाजमें आजसे दो हजार वर्ष पहलेसे लेकर हजार वर्ष पहले तक हजार वर्षों में, जो ग्रंथ लिखे गये, उनकी प्रामाणिकतामें बादमें चलकर कभी कोई सन्देह नहीं किया गया और उन्हें ही यथार्थमें हिन्दू धर्मका मेरुदण्ड कह सकते हैं । मनु और याज्ञवल्क्यकी स्मृतियाँ, सूर्यादि पाँचों सिद्धान्त ग्रंथ, चरक और सुश्रुतकी संहितायें, न्यायादि छहों दर्शन-सूत्र, प्रसिद्ध पुराण, रामायण और महाभारतके वर्तमान रूप, नाट्य-शास्त्र, पतंजलिका महाभाष्य आदि कोई भी प्रामाणिक माना जानेवाला ग्रंथ क्यों न हो, उसकी रचना, संकलन या रूप-प्राप्ति सन् ईसवीके दो-ढाई सौ वर्ष इधर-उधरकी ही है ! उसके बादकी चार-पाँच शताब्दियों तक इन ग्रंथोंके निर्दिष्ट आदर्शका बहुत प्रचार होता रहा और इसी प्रचार-कालमें संस्कृत साहित्यके अनमोल रत्नोंका प्रादुर्भाव हुआ । अश्वघोष, कालिदास, भद्रबाहु, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, कुमारिल, शंकर, दिङ्नाग, नागार्जुन आदि बड़े बड़े आचार्योंने इन शताब्दि- योंमें उत्पन्न होकर भारतीय विचार-धाराको अभिनव समृद्धिसे समृद्ध किया। वेद अब भी आदरके साथ मान्य समझे जाते थे पर साधारण जनतामें उनकी महिमा नाम-मात्रमें ही प्रतिष्ठित रही।