पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१५९

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उपसंहार नई कल्पना भी, जिसने आधुनिक साहित्यमें ईश्वरका स्थान ले लिया है, अधि- कांशमें हिन्दीके लिए नई चीज है। यह प्राचीन विश्व-मैत्रीके आदर्शसे पूर्णतः भिन्न है जिसमें 'आब्रह्मस्तंभयन्त' सर्वभूतके हितकी चिन्ता रहती थी। इन और अन्य प्रेरणामूलक विचारोंका यथेष्ट प्रचार न होनेसे केवल हिन्दी समझने- वाली जनताके लिए इस कविताका रसास्वाद करना कठिन हो गया है । इसालीए अंग्रेजी साहित्यसे परिचित सहृदय जन जिन लोगों को बहुत उच्चकोटिके कवि मानते हैं, उन्हें ही उस साहित्यसे अपरिचित लोग 'छायवादी' कहकर और अबोध-गम्य मानकर उपेक्षा करते हैं। हाल ही में 'इम्प्रेशनिष्ट' कहकर व्यंग्य करनेकी प्रवृत्ति भी परिलक्षित हुई है। यह प्रवृत्ति कभी कभी उच्च कोटिकी पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती देखी गई है। कान्य-पुस्तकों में लम्बी लम्बी. भूमिकाओद्वारा कवि बेवसीके साथ अपने और अपने पाठकोंको बीचके व्यव- धानको भरने की चेष्टा करता है। यह चेष्टा कभी कभी उपहासास्पद अवस्था तक पहुंच गई है। लेकिन असलमें इस व्यवधानको आधुनिक शास्त्रोके प्रचारद्वारा ही भरा जा सकता है। वैयक्तिकता और भावुकताके ह्रासके साथ ही साथ, और इन्हींके परिणाम- स्वरूप इधर पिछले वर्षोंकी तुलनामें सस्ते और भाव-प्रवण गीतोंकी बहुत कमी हुई है। इन रचनाओंमें मुश्किलसे दो-एक गीत मिलेंगे। परन्तु कुछ लोग इस दिशामें अग्रसर होकर अपने लिए नए क्षेत्रकी सूचना दे रहे हैं। जिन कवियोंने इस नए रास्तेपर चलना पसंद नहीं किया है, उनमें भी गीत लिखनेकी प्रवृत्ति कम ही दिखाई पड़ी है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, वैयक्तिकताका ह्रास और वक्तव्य वस्तुके याथार्थ्यकी वृद्धि ही इधरकी प्रधान उल्लेखयोग्य घटना है। इस प्रवृत्तिका परिणाम वनि-मूलक रचनाओंकी प्रधानता ही होनी चाहिए। पिछली व्यक्तित्व- प्रधान कविताओंमें कवि अपने अनुराग-विरागका इतना अधिक गाना गाता था, अपने भीतरके स्थायी-संचारी भावोंका इतना अधिक वर्णन करता था (अब भी। यह प्रवृत्ति चली नहीं गई है) कि उसका वक्तन्य अर्थ बहुत कुछ बाच्यके रूपमै ही प्रकट होता था, उसमें व्यञ्जकत्वकी गुंजायज्ञ बहुत कम रह जाती थी।