पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१५७

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उपसंहार अपने अन्तरके योगमें उपलब्ध किया था। कवि जगत्को अपनी रुचि, अपनी कल्पना और अपने सुख-दुःखमैं गुथा हुआ देखता था और रचना-कौशलसे उसका व्यक्तिलगत् पाठकका उपभोग्य हो उठता था। यूरोपीय महायुद्धके बादसे इस विशेष दृष्टिमें बहुत परिवर्तन हो गया है। वैसे तो परिवर्तन के लक्षण बहुत पहलेसे ही दृष्टिगोचर हो रहे थे पर महायुद्धकी कठोरता, क्रूरता और बिनौने- पनने यूरोपीय कविके अन्दर बड़ी तीव्र प्रतिक्रियाका भाव ला दिया ! इधरकी हिन्दी कवितामें अप्रत्यक्ष रूपसे इस युद्धोत्तरकालीन प्रतिक्रियाका प्रभाव भी दिखाई पड़ा है। इधर जो परिवर्तन हिन्दी कविताम अत्यन्त स्पष्ट रूपसे दिखाई दिया है वह युद्धोत्तरकालीन, कान्यके प्रभाव-वश या अनुकरण करने की चेष्टा- बंश नहीं, बल्कि आधुनिक युगके विचारों के कारण हुआ है। पिछले पन्द्रह बीस वर्षाकी हिन्दी कविता . उसकी सैकड़ों वर्षकी परम्पराके विरुद्ध वैयक्तिकताका अबाध प्रवेश हुआ है। चाहे कवि कलनाके द्वारा इस जगतकी विसदृशताओंसे मुक्त एक मनोहर जगत्की सृष्टि कर रहा हो, या चिन्ताद्वारा किसी अज्ञात रहस्यके भीतर प्रवेश करनेकी चेष्टा कर रहा हो, या अपनो अनुभूतिके बलपर पाठकके वासनान्तर्विलीन मनोभावोंको उत्तेजित कर रहा हो,-सर्वत्र उसकी वैयक्तिकता ही प्रधान हो उठती रही है । अत्यन्त आधुनिक कवि इस भावु- कताको पसन्द नहीं करता। वह वस्तुको आत्म-निरपेच भावसे देखनेको ही सच्चा देखना मानता है। यह बात उसके निकट सत्य नहीं है कि वस्तुको उसने कैसा देखा, बल्कि यह कि वस्तु उसके बिना भी कैसी है! इस वैज्ञानिक चित्त- वृत्तिका प्रधान आनन्द कौतूहलमें है, उत्सुकतामें हैं, आत्मीयतामें नहीं। और जैसा कि इस विषयके पंडितोंने बताया है, विश्वको व्यक्तिगत आसक्तभावसे न देखकर अनासक्त और तद्गत भावसे देखना ही आधुनिक दृष्टिकोण है। हालके बहुत-से हिन्दी कवियोंने जगत्को इस दृष्टिसे देखनेका प्रयास किया है । इसी दृष्टिकोणको उन्होंने रूपसे भावकी ओर जाना कहा है। इसके विरुद्ध कल तक वे भावसे रूपकी ओर आनेका ही प्रयल करते थे। कविवर सुमित्रानन्दन पन्तकी कविताओं में इस नियक्तिक दृष्टिकोणका सबसे अधिक प्रकाश हुआ है। उनके द्वारा सम्मादित 'रूपाभ' नामक मासिक पत्र में इस प्रकार बाह्य जगत्को तद्गत और अनासक्त भावसे देखनेका प्रयल करनेवाले कवियोंकी बहुत-सी कविताएँ प्रकाशित हुई थी, किन्तु यह समझना