पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१५६

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· हिन्दी साहित्यकी भूमिका करता था, उसी प्रकार वह इस ठोस रूपाचरण जागतिक व्यापारोंके भीतर भी एक रूपातीत सत्यको देखा करता था। हमारे कहनेका यह मतलब नहीं है कि वह कवितामें फिलासफी झाड़ा करता था-यह काम तो हम लोग अब करने लगे हैं, बहुत हालमें,-हम केवल यही कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार अर्थमें, उसी प्रकार परमार्थमें भी वह एक ठोस रूपके परेकी वस्तु-रस-को देखा करता था । इसीलिए इजार बन्धनों के भीतर रहकर भी वह मंगलकी सुष्टि कर सकता था। अब इस युगभै, जिस प्रकार हमने अन्य विषयोंमें यूरोपियन कलाका अनुकरण किया है, उसी प्रकार काव्यके क्षेत्रमै भी हम अभिव्यक्तिको प्रधानता देने लगे हैं: व्यंजनाको हमने छोड़ और सुला दिया है। हम रूपकी वास्तविकताकी ओर प्रलुब्ध भावसे दौड़ पड़े हैं; परन्तु अरूपकी वास्तविकता हमसे दूर हट गई है। अनित्यका चित्रण हम सफलताके साथ करने लगे हैं; पर उसमें निहित शाश्वतका चित्रण हमारे साथ्य के बाहर हो गया है। प्रो० लेवीने कहा था कि कलाके क्षेत्रमें भारतीय प्रतिभाने संसारको एक नूतन और श्रेष्ठ दान दिया था, जिसे प्रतीक रूपते 'रस' शब्दके द्वारा प्रकट कर सकते हैं और जिसे एक वाक्य में इस प्रकार कह सकते हैं कि कवि अभिव्यक्त (express) नहीं करता, व्यंग्य या ध्वनित (suggest) करता है। आज हमने अपने इस श्रेष्ठ दानको भुला दिया है और इसीके फलस्वरूप काव्य और आख्यायिकाक क्षेत्रमें कुरुचि और जुगुप्सामूलक रचनाओंकी अधिकता हो गई है। फिर भी इम कविके साथ आश्वस्त हो सकते हैं, क्योंकि-" दूर देशका मलय-समीर देशान्तरके साहित्य-कुंजमें पुष्पोत्सवका ऋतु लातेमें समर्थ हुआ है, इस बातका प्रमाण इतिहासमै है । जहाँसे हो और जैसे भी हो जीवनके आघातसे जीवन जाग उठता है, मानव-चित्तके लिए यह चिरकालके लिए एक वास्तविक हालद्दीमें हिन्दी कविता गत पन्द्रह-बीस वर्षोंकी परम्परासे भी अलग होने लगी है। यह अलगाव मुख्यतः वक्तन्य-विषयमें स्पष्ट हुआ है असहयोग आन्दोलनके बादसे खड़ी बोलीकी कवितामै उन्नीसवीं शतान्दीके अंग्रेजी कवि- योका प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता रहा है। इस श्रेणीके कवियोंने बाह्य जगतको