पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३४ हिन्दी साहित्यकी भूमिका ma आधुनिक कवितामें प्रकृति में आध्यात्मकताका भी आरोप देखा गया। ईश्वरका स्थान आज मानवताने ले लिया है, पूजन-भजनके स्थानपर आज पीड़ित मानव- ताकी सहायता और हमदर्दी प्रतिष्ठित हो चुकी है। प्राचीन धार्मिक विश्वासोंकी रूढ़ियों के हिल जाने के कारण आजके साहित्यिकने संसारको नई दृष्टि से देखनेका प्रयत्न किया है, और यूरोपियन साहित्यकी रहस्य-भावना क्रमशः उसे अपनी ओर खींचने लगी है। प्रत्येक क्षेत्रमें ऐतिहासिकताकी प्रतिष्ठा इस बातका पक्का सबूत है कि भारतीय चिन्ता अपना पुराना रास्ता केवल छोड़ ही नहीं चुकी है, भूल भी गई है। ऊपरकी कहानी एक जातिके बनने या बिगड़ने की कहानी है। एक बार आश्चर्य होता है उस भाषाकी अपूर्व ग्राहिका-शक्तिपर, जो पचीस बरसके मामूली असेंमें इतना ग्रहण कर सकती है-नहीं, इतना परिवर्तन स्वीकार करके भी निर्विकार- सी बनी रह सकती है ! और फिर आश्चर्य होता है उस जातिपर जो इतनी जल्दी इतना भूल सकती है ! आजका हिन्दी-साहित्य हमारे लिए इतना निकट है कि हम उसको ठीक-ठीक नहीं देख सकते । सांख्य-कारिकामें बताया गया है कि अत्यन्त दूर और अत्यन्त नजदीक ये दोनों ही अवस्थाएँ प्रत्यक्षकी उपलब्धि बाधक हैं। फिर विविध परिवर्तनोंके आलोड़न-विलोड़नसे इसकी ऊपरी सतह कुछ ऐसी फेनिल हो गई है कि नीचेकी गहराई साफ नजर नहीं आती। पर हम चाहे जितने भी उन्नत या अवनत हो गये हों, चाहे जितना भी आगे या पीछे हट आये हों, जो बात सर्वाधिक स्पष्ट है, वह है हमारी अनुकरणक्षमता। हमने अन्धाधुन्ध अनुकरण किया है; अच्छा-बुरा जो कुछ मिला है, उसे उद- रस्थ करनेकी चेष्टा की है, सत्-असत् जो कुछ अपना था, सब छोड़ते और भूलते गये हैं। शायद हम ऐसा करनेको बाध्य थे, शायद यही स्वाभाविक है; 'पर जिस श्रुटिको कोई भी बर्दाश्त नहीं कर सकता वह यह है कि हमने अपनी वह सबसे बड़ी सम्पत्ति खो दी है, जिसने भारतीय साहित्यको, उसके सम्पूर्ण दोष-त्रुटियों के बाद भी, संसारके साहित्यमें अद्वितीय बना रखा था । वह सम्पत्ति है-संयम, श्रद्धा और निष्ठा । इस अनन्य साधारण गुणके अभावमें कई जगह हमारी क्यैक्तिकता साहित्यमें गलदश्रु-भावुकतासे आरम्भ करके हिस्टीरिक प्रमाद तकका रूप धारण करती जा रही है; प्रकृतिका आलम्बन थोथी बकवाद और शून्यगर्भ प्रलाप-वाक्योंके रूपमें