पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१५३

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उपसंहार असन्तोष हुआ, संसार रहस्यमय दिला ! हिन्दी कविके विचार और हिन्दी- कविताकी रूप-रेखा दूसरी हो गई। केवल इसी दृष्टिसे देखा जाय, तो हमारे आधुनिक कवियों का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन नक्युगकी बात कहते समय हमें कविताको अन्तमें ही ले याना चाहिए था। जो कोई भी नवयुगका आदिप्रवर्तक क्यों न हो, वह निश्चय ही गद्य-लेखक था। सत्र यूछा जाय तो नवयुगका साहित्य गद्यका साहित्य है। भाषाने परिवर्तनके अनेक रूर देखे हैं, शब्दकोषमें आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है, गद्यकी शैलियोंमें ज़बर्दस्त परिवर्तन हुआ है, पानी भाषा एकदम बदल गई है। हिन्दी के उपन्यास और कहानियाँ एकदम नई चीन है। इस क्षेत्रमै हिन्दी साहित्यकी वेगवती यात्रा, ओ 'चन्द्रकान्ता से शुरू होकर 'गोदान' तक पहुँच . चुकी है, बड़े माकी है। नाटकरें में यद्यपि इतना बड़ा विकास नहीं हुआ है; पर वह नित्यन्त कम भी नहीं है। लिरिक (गीत काव्य) में अभूतपूर्व परिवर्तन और नया प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है, और जैसा कि कभी कभी वृद्ध पंडित हुँझलाकर कहा करते हैं, छन्द, भाषा, रीति-नीति और यहाँ तक कि उपमा- रूपक अदिमें भी आजकी कविता प्रत्येक अंगरेजी ताल-सुरपर नाचने लगी है। और चाहे इन वृद्ध पंडितोंकी आलोचनाको ले लीजिए, या भारतीय राष्ट्रकी विशुद्धताके वकीलोंके लेख और व्याख्यान, वा धार्मिक और दार्शनिक मतवा- दोंकी व्याख्याएँ, या मासिक और अन्य सामयिक साहित्य:--सर्वत्र सुर बदल गया है, अँगरेजी ढंगका अनुकरण हो रहा है । और हमारा साहित्य निश्चित रूपसे प्राचीनोंकी निर्धारित नियमावलीसे अलग इट गया है। यह तथ्य है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन फिर भी साहित्यके उपरिलिखित बाह्य रूपमें जो परिवर्तन हुआ है, वह उसके आभ्यन्तर रूपको देखते हुए बहुत मामूली है। साहित्यका स्पिरिट ही बदल गया है। मनुष्यकी वैयक्तिकताने निश्चित रूपसे साहित्यमें स्थान पाया है । नारीने अपने समानाधिकारके दावेके साथ साहित्यमें प्रवेश किया है और दृढ तथा उदात्त कंठसे पिछली शताब्दीकी कल्पित अवास्तविक नारी-मूर्तिके चित्रणका प्रतिवाद किया है, साहित्य अनजान में इस कल्पनासे दूर इट गया है। वह दिन अब जाता रहा है, जब प्रकृति सिर्फ उद्दीपन भावके रूपमें, या केवल सजावटके रूपमें चित्रित की जाती थी, और यदि नहीं गया है, तो जानेकी तैयारी है। आज प्रकृतिके साथ साहित्यका रिश्ता आलम्बनका रिश्ता है, उद्दीपनका नहीं।