पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१५२

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका लेकिन उन्नीसवीं शताब्दीके शुरूमें हिन्दीकी रीतिकालीन कवितामें वह उज्ज्वल पक्ष बहुत कुछ म्लान हो गया था और पूर्ववर्णित अनुज्ज्वल अंश गाढ हो उठा था। इसी समय हमारा सम्बन्ध पश्चिमी दुनियासे हुआ। बीसवीं शता- ब्दीके आरम्भमैं यह प्रभाव स्पष्ट लक्षित हुआ, और पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में इसने हिंदी-साहित्यमे युगांतर उपस्थित कर दिया है। इस नये साहित्यकी अलोचना करनेके पहले हम एक बार फिर स्मरण कर लें कि यहाँ तक हमारी क्या पूँजी थी। J संस्कृतमें लिखे हुए शास्त्रोपर हमारी अविचल श्रद्धा थी। हिंदीमें जो कुछ लिखा जा रहा था, वह निश्चित रूपसे, कम अच्छा और Inferior मान लिया गया था । कविका व्यक्तित्व कवितामें यथासम्भव काम प्रस्फुटित होता था, बँधे- बँधाए नियमोंकी अनुवर्तितामें कवित्वका साफल्य स्वीकृत हो चुका था, कविता रसपरक हो गई थी, पर वह सम्पूर्णतः अपनेको धर्मसे अलग नहीं कर सकी थी. जन्मान्तरवाद निश्चित रूपसे स्वीकृत हो जानेके कारण प्रचलित रूढ़ियों के विरुद्ध तीन सन्देह एकदम असम्भव था, कान्य-शास्त्रकी रूढ़ियाँ कविताका अविच्छेद्य अंग हो गई थी और साहित्यके नामपर एकमात्र पद्यका राज्य था। इसी संपदको लेकर हम पश्चिमके संस्पशमै आये। अपना पूर्व गौरव हम भूल चुके थे। हम कविताकी बात करते आ रहे थे। यह अच्छा ही हुआ था, क्योंकि नब- युगके आरम्भमैं अपने प्राचीनोंसे हमने जो कुछ वर्तमान साहित्यका पाया था,वह कविता ही थी। यहाँ हम बिना रुके कविताकी बात करते जा सकेंगे । जहाँ तक कविताका सम्बन्ध है, बहुत कम दिन पहले ही हमारे साहित्यकोंको नवयुगकी हवा लगी है। जिस दिन कविने परिपाटीविहीन रसशता और रूढ़िसमर्थित काम्य-कलाको साथ ही चुनौती दी थी, उस दिनको साहित्यिक क्रान्तिका दिन समझना चाहिए। सब कुछ झाड़-फटकारकर कविने अपने आत्म-निर्मित आधार- की कठोर भूमिपर अपने आपको आ जमाया । पहली बार उसने अपनी अनु- भूतिके ताने-बानेसे एक संकीर्ण दुनिया, तैयार की, सकीर्ण होनेके साथ ही यह प्रसारधर्मी थी। इस भूमिपर, इस आत्म-निर्मित बेड़ेके अन्दर खड़े होकर हिंदीके कविने अपनी आँखोंसे दुनियाको देखा, कुछ समझा। पहली बार उसने प्रश्नभरी मद्रासे दुनियाके तथाकथित सामञ्जस्यकी ओर देखा । उसे सन्देह हुआ,