पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१५१

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उपसंहार सुसंस्कृत समझी जानेवाली करितामें जो बात सबसे अधिक खटकनेवाली है, वह है उसकी परमुखापेक्षिता । क्या अलंकार, क्या नायिका-भेद, सर्वत्र इसमें उत्तरकालीन संस्कृत साहित्यकी नकल की गई है, और साथ ही साथ यह समझकर कि भाषामें किया हुआ यह प्रयत्न संस्कृतके कवियोंकी तुलनामें नितान्त तुच्छ है। ऊपर जो कुछ कहा गया है, वह चित्रका एक पहल है। उसका दूसरा पहलू इससे कहीं अधिक उज्ज्वल और महत्त्वपूर्ण है। पिछले दो हजार वर्षों का भार- तीय साहित्य जहाँ कविके व्यक्तित्वको उत्तरोत्तर खोदा गया है; जननाघरगके वास्तविक सुख-दुःखोंसे हटकर अपने ही द्वारा निर्मित बन्धनोंमें बराचर बँधता गया है, कीर्ति-प्राप्तिका केन्द्र अपने आपको न बनाकर किसी अन्य ऐश्वर्यको बनाला गया है, वैयक्तिकताकी स्वाधीनताको छोड़कर 'टाइप' रचनाकी पर:- धीनता स्वीकार करता गया है, वहाँ निश्चयपूर्वक उसने कुछ ऐसी बाते संसारको दी हैं, जो अनुपम है। विशेषज्ञ पंडितोंने समसामयिक प्रोक, रोमन तथा अन्य समृद्ध समझे जानेवाले साहित्योंके साथ तुलना करके देखा है कि कालिदास तो कालिदास, माघ और भारपिके साथ भी जिनका नाम लिया जा सके, ऐसे कवि भी समसामयिक साहित्यमें नहीं हैं। यदि हम पहली बातों को सामने रखकर इस बातपर विचार करते हैं, तो यह एक अद्भुत विरोधाभास-सा जान पड़ता है; किन्तु है यह ठीक ! कारण यह है कि विविध ऋधनोंके भीतर रहकर संस्कृतके कविने एक अपूर्व संयमका अभ्यास किया है, अपने आपको मिटाकर वह सहज ही सर्वसाधारणका प्रतिनिधि हो सका है, और वास्तविकताकी कठोर विषमताके भीतर एक शाश्वत मंगलको प्राधान्य दे सका है। सच पूछा जाय तो जैसा कि रवीन्द्रनाथने कहा है, उसकी दृष्टिमै स्त्री-पुरुषका प्रेम स्थायी नहीं हो सकता अगर वह बन्ध्य हो, अगर वह अपने-आपमें ही संकीर्ण हो रहे, कल्याणको जन्म न दे और संसारमें पुत्र-कन्या अतिथि-प्रतिवेशी आदिके बीच विचित्र सौभाग्य रूपसे व्यास न हो जाय । एक ओर संसारका निविड़ बन्धन और दूसरी ओर आत्माकी बन्धनहीन व्यापकता, इन दोनोंका सामंजस्य संस्कृत-कविताको एक अपूर्व माधुर्यसे मंडित कर सका है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है संस्कृत कविकी श्रद्धा और निष्ठा । शास्त्राभ्यासके साथ जहाँ प्रतिभाका मणि-काश्चन योग हुआ है, वहाँ संस्कृतका कवि अतुलनीय है।