पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१५०

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१३० हिन्दी साहित्यकी भूमिका हो सकता । कविके लिए शास्त्राभ्यास नितान्त आवश्यक है। संस्कृत आलं. कारिककी दृष्टिमें ग्रामीण गीतों या सन्तोंकी अटपटो बानीमें कवित्व ही नहीं हो सकता । इस मनोवृत्तिका परिणाम पिछले खेबेके हिन्दी समालोचकोंकी आलोचनाएँ हैं जिसमें देव, विहारी आदि आलोच्य कवियोंको सर्वशास्त्रोंसे परिचित सिद्ध करनेकी चेष्टा की गई थी। मध्य युगमें जब नये सिरेसे हिन्दी कविता सिर उठाने लगी तो उसमें ये सब बातें नहीं थीं। उसमें शास्त्राभ्यासका स्थान गौण था। धार्मिक शास्त्रों के सम्ब- न्धमें भी कुछ सुनी-सुनाई बाते ही उसकी उपजीच्य थीं; पर शीघ्र ही शास्त्रा- भ्यासने इस क्षेत्र में भी प्रवेश किया और बादकी कविताएँ जीवनसे विच्छिन्न हो गई। कविगण नायक और नायिकाओंके और अलंकार तथा संचारी आदि भावोंके पूर्व-निर्णीत वर्गीकरणका आश्रय लेकर एक बँधे-सधे सुरमैं एक बंधी- सधी बोलीकी कवायद करने लगे। संस्कृतके उत्तरकालीन साहित्यका प्रभाव ही उसे चालित कर रहा था। के इस ओर इसके उपजीव्य उत्तरकालीन संस्कृत साहित्यके साथ जब हम उन रचनाओंकी तुलना करते हैं जो लोक-जीवन के साथ घनिष्ठ भावसे जड़ित थीं, तो सहज ही दोनोंका भेद स्पष्ट होता है। मेरा मतलब गाँवोंमें प्रचलित गीतों और कथानकोंसे है। वहाँ हम प्रेम और वियोगमें तड़पते हुए सच्चे हृदयोंका वर्णन पाते हैं। भाईसे विच्छिन्न बहनकी करुण कथा; सौतके, ननदके और सासके अकारण निक्षिप्त वाक्य-वाणोंसे विद्ध बहूकी मर्म-कहानी; साहूकार जमी- दार और महाजनके सताये गरीबोंकी करुण पुकार; आनपर कुर्बान हो जानेवाले विस्मृत वीरोंकी वीर्य-गाथा; अपहार्यमाणा सतीका वीरत्वपूर्ण आत्मघात: नई जवानीके प्रेमके घात-प्रतिघात प्रियतमके मिलन-विरह और मातृ-प्रेमके अकृत्रिम भाव इन गीतोंमें भरे पड़े हैं। जन्मसे लेकर मरण तकके कालमें, और सोहाग- शयनसे लेकर रणक्षेत्र तक फैले हुए विशाल स्थानमें सर्वत्र इन गानोंका गमन है। यही हिन्दी-भाषाकी वास्तविक विभूति है। इसकी एक एक बहके चित्रणपर रीति-कालकी सौ सौ मुग्धाएँ, खण्डिताएँ और धीराएँ निछावर की जा सकती है, क्योंकि ये निरलंकार होनेपर भी प्राणमयी है, और वे अलंकारोंसे लदी । हुई होकर भी निष्माण हैं । ये अपने जीवनके लिए किसी शास्त्र-विशेषकी : मुखापेशी नहीं हैं। ये अपने आपमें ही परिपूर्ण हैं। मध्य-युगकी हिन्दीकी