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हिन्दी साहित्य:

भारतीय चिन्ताका स्वाभाविक विकास

आजसे लगभग हज़ार वर्ष पहले हिन्दी साहित्य बनना शुरू हुआ था। इन हजार वर्षों में भारतवर्षका हिन्दीभाषी जन-समुदाय क्या सोच-समझ रहा था, इस बातकी जानकारीका एकमात्र साधन हिन्दी साहित्य ही है। कमसे कम भारतवर्षके आधे हिस्सेकी सहस्रवर्ष-व्यापी आशा-आकांक्षाओंका मूर्तिमान प्रतीक यह हिन्दी साहित्य अपने आपमें एक ऐसी शक्तिशाली वस्तु है कि इसकी उपेक्षा भारतीय विचार-धाराके समझनेमें घातक सिद्ध होगी। पर नाना कारणोंसे सचमुच ही यह उपेक्षा होती चली आई है। प्रधान कारण यह है कि इस साहित्यके जन्मके साथ ही साथ भारतीय इतिहासमें एक अभूतपूर्व राजनीतिक और धार्मिक घटना हो गई। भारतवर्षके उत्तर-पश्चिम सीमान्तसे विजयदृप्त इस्लामका प्रवेश हुआ जो देखते देखते इस महादेशके इस कोनेसे उस कोनेतक फैल गया । इस्लाम जैसे सुसंगठित धार्मिक और सामाजिक मतवादसे इस देशका कभी पाला नहीं पड़ा था, इसीलिए इस नवागत समाजकी राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक गतिविधि इस देशके ऐतिहासिकका सार ध्यान खींच लेती है। यह बात स्वामाविक तो है, पर उचित नहीं है। दुर्भाग्यवश, हिन्दी साहित्यके अध्ययन और लोक-चक्षु-गोचर करनेका भार जिन