पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१४८

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१२८ - हिन्दी साहित्य की भूमिका हम जाग जायेंगे। जो वस्तु औरोंके निकट नितान्त सत्य है, उससे अधिक असत्य उसके निकट और कुछ है ही नहीं, और जहाँ तक उसके घरका सम्बन्ध है, बह निश्चित जानता है कि वह और चाहे जहाँ कहीं भी हो, इस दुनिया में नहीं है।" . सन् ईसवीके आरम्ममें यह विचार भारतीय समाजमें निश्चित सत्यके रूपमें स्वीकार कर लिये गये थे, उसमें विचिकित्साका भाव एकदम जाता रहा था। जो कुछ इस जगतमें दृष्ट हो रहा है, उसका एक अदृष्ट कारण. है, यह बात निस्सन्दिग्ध मान ली गई थी। जन्मान्तर-व्यवस्था और कर्मफलवादके सिद्धान्तने ऐसी जबर्दस्त जड़ जमा ली थी कि परवर्ती युगके कवियों और मनीषियोंके चित्तमें इस जागतिक व्यवस्थाके प्रति मूलसे भी असन्तोषका आभास नहीं मिलता । जो कुछ जगत्में हो रहा है, उसका एक निश्चित कारण है, उसमें प्रश्न करने और सन्देह करनेकी जगह ही नहीं। कवि एक शान्तिमय जगत्में निवास करते थे; उसमें दुःख भी कष्ट भीः क्रन्दन भी हास्य भी, एक सामंजस्य- पूर्ण व्यवस्थाका परिणाम समझा जाता था। कवि इन बातोंसे विचलित नहीं होता था। इसीलिए संस्कृतके इस युगके कवियों में समाज-व्यवस्थाके प्रति किसी प्रकारके विद्रोहकी भावना, क्लेश-पिष्ट जनसमुदायके प्रति सहानुभूतिमय असन्तोषका भाव एकदम नहीं पाया जाता । कवि स्वर्य दरिद्र या दुःखी न होते हो, सो बात नहीं। गरीबीका जितना करुण और हृदयस्पर्शी वर्णन संस्कृत काव्योंमें है वह अन्यत्र दुर्लभ है, फिर भी यह सारा प्रयत्न मानो एक बेबसीका प्रयत्न है, मानो उसको कवि अवश्यंभावी और ध्रुव मान बैठा है, ऐसा अनु-

  • भव होता है। आप करुणाविगलित हृदयकी धड़कनके साथ विधवाका मर्मस्पर्शी

रोदन पढ़ जायेंगे; अपमानिताका साश्रु क्रन्दन सुन जायगे, निर्दलितका उच्छ्- वासपूर्ण आवेग बर्दाश्त कर जायँगे; पर बहुत कम ऐसा देखेंगे कि कविने एक- बार भी भापका हृदय सहला देनेके लिए विद्रोहके साथ कहा हो कि यह अन्याय है, हम इसका विरोध करते हैं। व्यक्तित्वकी इतनी जबर्दस्त उपेक्षा संसारके साहित्यमें दुर्लभ है, क्योंकि संस्कृतका कवि अपने आपको,-अपने सुख- दुःखोंको अभिन्यक्त करनेके लिए कविता करने नहीं बैठता था। उसका उद्देश्य कुछ और ही होता था। वह उद्देश्य क्या था ?