पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१४७

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उपसंहार लोक रंजनके लिए कुछ भी नहीं लिखा गया, परवर्ती साहित्य, जिसे काग्य कहते हैं, वह वस्तु उस में नहीं हैं। एक स्वास विषयको सामने रखकर एक खास उद्देश्यसे पूर्ववर्ती साहित्य रचित हुआ था। फिर भी, यह नही समझना चाहिए कि उस युगमें 'कवि' शब्दसे धोत्य तत्त्व बिल्कुल सोचा ही नहीं गया। पंडितोंने देखा है, ऋग्वेदमें पाया जानेवाला 'कार' शब्द कविका ही वाचक है। कहते हैं कि इस बातका प्रमाण ऋग्वेदसे ही पाया जा सकता है कि कवि (कारु) वैद्यकी ही तरह एक पेशेवर आदमी होता था (ऋ०९-११२--३)। इतना ही नहीं, वह राजाओं और धन-सम्पन्न व्यक्तियोंके दरबारमें भी रहता था और उनकी कीर्ति-गाथाका गान भी करता था (७-७३-१)। लेकिन यह सब अनुमान ही अनुमान है। जिन मन्त्रोंको लेकर ये बातें सोची गई है, उनमें कवि शब्द आता ही नहीं। 'कवि' शब्द समस्त वैदिक साहित्य में उसी गौरव और आदरके साथ प्रयुक्त हुआ है जिसके साथ 'ऋषि' शब्द । ऋग्वेदसे ही ऐसे बीसियों भन्त्र उद्धृत कर दिये जा सकते हैं जहाँ सूक्त-रचयिताओको ऋषि और कवि कहा गया है। इतना ही नहीं, 'कवि' शब्दले कभी कभी सुष्टिकर्ताको भी स्मरण किया गया है। सन् १८८२ में सिविल सर्विस के अँगरेज परीक्षार्थियों के सामने व्याख्यान देते हुए प्रोमैक्समूलरने इस वैदिक साहित्यका एक शब्दमें बड़ा सुन्दर परिचय दिया था वह शब्द है अतीत, परे-~Transcendent, Beyond : "उससे इस सान्त जगत्की बात कहो, वह कहेगा अनन्तके बिना सान्त जगत् निरर्थक है, असम्भव है। उससे मृत्युकी बात कहो, वह इसे जन्म कह देगा। उससे कालकी बात कहो, वह इसे सनातन तत्वकी छाया बता देगा। हमारे (यूरोपियनोंके) निकट इन्द्रिय-साधन है, शस्त्र है, ज्ञान-प्रासिके शक्तिशाली इंजन हैं, किन्तु उसके (वैदिक युगके कविके) लिए अगर सचनुच धोखा देनेवाले नहीं तो कमसे कम सदा ही जबर्दस्त बन्धन है, आत्माकी स्वरूपोप- लब्धिमें बाधक हैं। हमारे लिए यह पृथ्वी, यह आकाश, यह जीवन, यह जो हम देख सकते हैं और हम छू सकते हैं, और जो हम सुन सकते हैं, निश्चित है, ध्रुव है। हम समझते हैं, यही हमारा घर है, यहाँ हमें कर्तव्य करना है, यही हमें सुख-सुविधा प्राप्त है; लेकिन उसके लिए यह पृथ्वी एक ऐसी चीज है जो किती समय नहीं थी, और ऐसा भी समय आवेगा जब यह नहीं रहेगी रह जीवन एक छोटा-सा सपना है जिससे शीघ्र ही हमारा छुटकारा हो जायगा।