पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१४३

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तारावलि-खचित वस्त्र पसन्द करती थीं । इन्दुलेखा वामा-प्रखरा और अरुण- वस्त्रा थीं। रंगदेवी और सुदेवी वामा-मध्या और नीलवस्त्रा, चित्रा दक्षिणा मुद्वी और नीलवतना, तुंगविद्या दक्षिणा-प्रखरा और शुक्लचत्रा, श्यामदा वामा- दाक्षिण्य-युक्त-प्रखरा और रक्तवस्त्रा, भद्रा दक्षिणा मृदी और चित्रवसना तथा चंदावली दक्षिणा, मृद्वी और नीलवसना थीं। इनकी सखी पद्मा दक्षिणा और प्रखरा तथा शैव्या दक्षिणा और मृद्री थीं। ये सभी स्तवस्त्रधारण करती थीं। इस प्रकार उज्ज्वल नीलमणिने गोपियोंकी बड़ी विस्तृत सूची दी है। सबके स्वभाव, वस्त्र और व्यवहार-मंगीको निपुण भावसे चित्रित किया है। परन्तु रीति-कालके किसी कविने इन गोपियोंमेंसे अधिकांशका नाम शायद ही लिया हो। भूले भटके क्वचित् कदाचित् ललिता, विशाखा और चंद्रावलीमा नाम आ जाता है। राधिका इस स्थानपर निश्चयपूर्वक प्रधान स्थान ग्रहण करती हैं । समूचे रीति-काल के साहित्यमें गोपियोंकी स्वपक्षता, सुहृत्पक्षता और तटस्थ- पक्षताकी चर्चा नहीं आती। इन विविध नायिकाओं और उनकी दूतियों तथा उनके अंगज ( अर्थात् भाव, हाव, हेला ), अयत्नज ( अर्थात् शोभा, कान्ति, माधुर्य, दीप्ति, प्रग- ल्भता, औदार्य, धैर्य) तथा स्वभावज (लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिञ्चित, मोहायित, कुमित, बिब्वोक, ललित और विद्दत) अलंकारों तथा विविध संचादि भावोंका आश्रय करके कवियोंने बहुत कुछ लिखा, पर सर्वत्र वे प्राचीन ग्रंथोंसे चालित हो रहे थे। अत्यन्त पुराने कालमें नाटयशास्त्र में जो कुछ इस विषयमें कहा गया था और बादमें दश-रूपक और साहित्य-दर्प-. गणादि ग्रंथों में उसीके अनुवादके रूपमें जो कुछ कहा गया था उससे अधिक किसी ने नहीं लिखा | इस प्रकार समूचा नायिका-भेदका साहित्य नाटय-शास्त्रके एक सामान्य अंगपर लोकगम्य भाष्यके सिवा और कुछ नहीं है। परन्तु संस्कृ-. तके नाटकों और कान्योको केवल भरत या धनंजयके नायिका-भेद चालित नहीं कर रहे थे। उनके सामने एक और भी इतना ही महत्त्वपूर्ण शास्त्र था जो प्रत्यक्ष रूपसे उनकी कृतियों का संयमन कर रहा था। यह शास्त्र है वात्स्यायनका कामसूत्र। यह तो नहीं कहा जा सकता कि. वात्स्यायनका काल क्या था पर इतना निश्चित है कि इस ग्रंथके बननेके बहुत पहलले भारतवर्षकी साम्पत्तिक अवस्था और राजकीय व्यवस्था बहुत ऊँचे