पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१४२

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१२२ हिन्दी साहित्यकी भूमिका 'पहली बार उज्ज्वल रसका आस्वादयिता भक्त माना गया है, समस्त अलंकार आर रस-ग्रंथों में पुनः पुनः निर्दिष्ट 'सहृदय' नहीं। इसमें भक्तिको भी एक रस माना गया है। हिन्दीके रीतिकालीन आलंकारिकों (या कवियों ) मेंसे किसी किसीने भक्तिको दसवाँ रस माना जरूर है पर श्रोता उनके सहृदय और सुकवि ही हैं। उनके रीझनेपर ही कवि अपनी रचनाको सफल काव्य माननेको तैय्यार है, नहीं तो, अगर वे न रीझे तो बादमें वह सन्तोष कर लेगा कि चलो, कविता नहीं तो न सही, राधाकृष्णका सुमिरन तो हो ही गया! ---- रीमिहैं सुकवि जो तो जानौ कविताई न तो राधिका-गुबिंद सुमिरनको बहानो है।

  • परन्तु रीति-कालके कवियोंने रसका निरूपण बिल्कुल प्राचीन रस-शास्त्रियोंकी

शैलीपर किया है। शायद ही किसी कविने उज्ज्वल नीलमणिके अनुकरणपर ३६३ प्रकारकी भिन्न भिन्न स्वभाव और नामवाली गोपियोंकी चर्चा की हो। उज्ज्वल नीलमणिमें गोपियों के स्वभाव और वस्त्राभूषण आदिके बारे में विस्तृत वर्णन है । कुछ गोपियाँ प्रखर स्वभावकी थीं, जैसे श्यामला मंगला आदि । श्रीराधा और पाली आदि कुछ गोपियाँ मध्यम और चंद्रावली आदि मृदुस्वभावा यीं। इनमें भी स्वपक्षा, सुहृत्पक्षा, तटस्थपक्षा और प्रतिपक्षा ये चार भेद हैं। इनमें कुछ वामा हैं, कुछ दक्षिणा हैं। श्रीराधिकाकी स्वपक्षा ललिता और विशाखा थीं। सुहृत्पक्षा श्यामला, तटस्थपक्षा भद्रा और प्रतिपक्षा चंद्रावली थीं। श्रीमती राधा वामा-मच्या थीं, कभी नीलवस्त्र धारण करतीं, कभी लाल । ललिता प्रखरा थीं, और मयूर-पुच्छ जैसा वस्त्र धारण करती थीं। विशाखा वामा-मध्या थीं और फल है। वियोग-तापसे गुलावकी सीसीका फूटना या दृष्टिका हृदय वेधकर मार डालना ऐसी ही उक्तियाँ बताई गई हैं। यह स्पष्ट ही अतिरंजना है। हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरणमें अपभ्रंशके प्रकरणमें इन भावोंके दोहे आये हैं जो बिहारी के निश्चित रूपसे मार्गदर्शक होंगे। दो ऐसे ही पद्य यहाँ दिये जाते हैं..- विट्टीए मई मणिय तुहँ, मा कुरु बंकी दिद्धि। पुत्ति सकराणी मल्लि जिंब, मारइ हिअइ पइहि ॥ चुडुलउ चुराणी होइसइ, मुद्धि कवोलि निहित्तउ । सासानल आल भालक्विड, वाह सलिल संसित्तः ।